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________________ १९२ ज्ञानाधकमानसूत्रे समुत्पन्नः ? इत्याह-'अन्नयाय' इत्यादि। अन्यदो अन्यस्मिन् समये च मां श्रेणिको राजा 'एजमाणं' एजमानम् आगच्छन्तं पश्यति दृष्ट्वा प्राद्रिय परि. जानानि, सत्कगेति, समानयति, आलपति, संलपति, अर्धासनेन उपनिमत्रयति, मस्त के आजिघ्रति च, इदानीं मां श्रेणिको राजा नो आद्रियते, 'णो परिजाणाई' नो परिजानातिको ममाग्रे तिष्ठतीत्यपि नावयुध्यत इत्यर्थः, 'णो सकारेड' नो सत्करोति मृदुवचनतः ‘णो सम्माणेई' न सन्मानयति, आसने उपवेगनाथ नाज्ञापयति, णो' न=न च 'इटाहि' इष्टामिप्टकारिणीभिः, कान्तामि अभिलपणीयाभिः, प्रियाभिः प्रीतिकरीभिः, मनोज्ञाभिः श्रवणसुखतिए कपिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्जित्था) देखकर उन को इस वक्ष्यमाण रूप से आत्मगत, चिन्तित, कल्पित एवं प्रार्थित मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ। (अन्नया ममं सेणिएराया एजमाणं पासइ, पासित्ता आहाइ, परिजाणाई, सकारेड सम्माणेइ आलवइ, संलवह, अद्वासणेण जब णिमंतेड) जब भी कभी अणिक राजा मुझे आते देखते थे तो वे मेरा आदर करते थे, मुझे जान लेते थे, मेरा सत्कार करते थे सन्मान करते थे मुझ से बोलते चालते थे और आधे आसन पर बैठो म प्रकार से कहते थे (मत्थयसि अग्धाइ) तथा मेरे मम्तक को संघते थे। (इयाणि ममं सेणिए राया णो आढाइ जो परियाणइ णो सक्कारेइ, णो सम्माणेह, णो इटाहि, कंताहि, पियाहिं,, मणुन्नाहि, ओरालाहिं वग्गूहिं आलवेइ संलवेड णो अद्भासणेणं उवणिमंतेड) पर अब इस समय वे न मेरा आदर करते हैं, और न मुझे पहिचानते है, न मेरा सत्कार करते हैं, न सन्मान करते हैं, और न इष्ट, कान्त प्रिय अज्झस्थिए चितिए कपिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था भने लान તેમને પિતાની મેળે ચિંતિત, કલ્પિત અને પ્રાર્થિત મનોગત આ રીતે સંકલ્પ ઉત્પન્ન यो (अत्नयाय ममं सेगिए राया एजमाणं पासइ पासित्ता आढाइ परिजाणाह सकारेइ, सम्माणेड, आलइ, संलबड, अढासणेण उणि मतेइ) ગમે ત્યારે શુક રાજા મને આવતે જતા હતા ત્યારે તેઓ મારે આદર કરતા હતા, મને એ ખતા હતા મારે સત્કાર કરતા હતા, સન્માન કરતા હતા, મારી સાથે વાતચીત ક તા હતા અને મને પોતાની પાસે અડધા સિંહાસન ઉપર બેસાડીને કંઈક ४ता ता (मत्यमि अग्धाट) भा३ भरत सूचता ता. (दयागि ममं सेणिए गया णो आढाइ णो परियाणा णो सकारेड, णो सम्मागेड, णो इटार्टि,कंताहि, पियाति, मणुन्नाहि, ओगलाहिं, बग्गृहि आलवेड. संलवे, णो अदासणणं अणिमंते) माया तगामा। मा२४२ता नथी, भने गण नथी अने
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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