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________________ 1/ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका सू.१० उपस्थानशाला सज्जीकरणादिनिरूपणम् १२१ कुरुत 'कारवेह य' कारयत च कृत्वा कोरयित्वा च एताम् = उपवेशनशाला सज्जीकरणरूपाम् 'आणित्तियं' आज्ञप्तिकाम्=आज्ञां 'पञ्चप्पिण' प्रत्यर्पयत = उपस्थान शालां सुसज्जीकृत्य सूचयत । 'तपणं' तदनु ते कौडुम्बियपुरिसा' ते कौडम्विकपुरुषाः=राजाज्ञाकारिणः, 'सेणिएणं रन्ना' श्रेणिकेन राज्ञा ' एवंवुत्तासमाणा' एवम् = पूर्वाभिहित प्रकारेण उक्ताः - आज्ञप्ताः सन्तः 'हट्टतुट्टा' हृष्टतुष्टाः = आनन्दित संतुष्टा 'जाब'' यावत्-आदेशानुसारं कार्यम् = आस्थानशालाया सुसज्जितकरणरूपं विधाय तस्य राज्ञआदेशं समर्पयन्ति । 'तणं सेणिए राया' तदनु= तत्पश्चात् श्रेणिको राजा 'कलं' कल्ये - प्रभातकाले 'पाउप्पभायाए' मादुःप्रभा तायां 'रयणीए' रजन्यां रात्रौ 'फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि' फुल्लोत्पलव मल लोग स्वयं (करे) करो तथा ( कारवेहय) दूसरो से करवाओ। (करिता कारवित्ताय ) जब इस प्रकार की उसकी सजावट पूर्ण रूप से तुम कर चुको और करा चुकtra (एयमाणत्तियं पञ्चपिणह) हमने आपकी आज्ञानुसार आस्थान मंडप सुसज्जित कर दिया है इस बात की सुचना हमें दो (तपणं ते कोडुंबिय पुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वृत्ता समाणा) इस तरह श्रेणिक राजा द्वारा आज्ञापित किये गये वे कौटुम्बिक पुरुष (हट्ठतुट्ठा जाव पच्चपिणंति) बहुत अधिक आनन्दित एवं परम संतुष्ट हुए । और राजा के आदेशानुसार आस्थान शाला को सुसज्जित करने रूप कार्य को अच्छी तरह करके पीछे नाथ, श्रापकी आज्ञानुसार सब कार्य हो चुका है 'ऐसी सुचना राजा को आकर दि । (तरणं सेणिए राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए) इसके बाद जब कि रजनी प्रभात प्राय हो चुकी थी और वाणी धूपसणीनी प्रेम था लय तेम लते या शेते तेनी सन्नवट (करेहय) मने (कारवेहय) मील भागुसो पासेथी अशवडावा. ( करिता कार वित्ताय ) જ્યારે તમે તે સ્થળની આ પ્રમાણે સજાવટ સંપૂર્ણ રીતે પતાવી દો, અને પતાવડાવી हो त्यारे (एयमाणत्तियं पञ्चष्पिणह) "अमे आपनी आज्ञा प्रभागे आस्थानभउंच सुंदर रीते सन्ज़वी ही घो छे, मे वातनी सूचना भने आये. (त एणं ते कोडुं - विपुरिसा सेगिएणं रन्ना एवंवुत्तासमाणा) या प्रमाणे श्रेणि४ रान्नथी आज्ञा भाभेला ते भेटुम्मि थुषी अर्थात्-शलना आज्ञाअरी पुरुषो (हट्टतुट्टा जाव पच पिगति) अत्यंत प्रसन्न भने संतुष्ट थया भने शन्ननी आज्ञानुसार - आा स्थानभ उपने સુંદર રીતે શણગાર્યા પછી હું સ્વામિ ! આપની આજ્ઞા પ્રમાણે બધુ જ કામ સંપૂર્ણ था गयु छे." सेवी अमर तेयोगे रान्नने साथी (त एणं सेणिए राया कल्यं पाउप्पभायाए रयणीए ) त्यारमाह क्यारे रात्री पूरी था भने परोढ थयु ं, त्यारे ૧૬
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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