SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ झाताधर्मकथाङ्गसूत्रे विशेस्तो वाञ्छनीयमेतत् इच्छियपडिच्छपमेय' ईप्सित-प्रतीप्सितमेतत् सर्वथा वान्छनीयमेतत् 'जणं तुम्भे वदह' यत्खलु यूयं वदथ, 'इति कटु' इतिकृत्वा इत्युक्त्वा सा तं स्वप्नं 'सम्म' पडिच्छई' सम्यक् प्रतीच्छति ईप्सिततया स्वीकरोति पतिप्य स्वीकृत्य श्रेणि केन राज्ञा 'अब्भणुन्नाया समाणी' अभ्यनुज्ञाता सती आज्ञप्तासती पतिनिदेशमादायेत्यर्थः, 'नाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ' नानामणिकनकरत्नभक्तिचित्राद- नानाविधमणिकनकरत्नरचनाचित्रिताद भद्रासनात् 'अब्भुटेइ' अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय यत्रैव स्वीयं शयनीय निजा शय्या तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्वकीये शयनीये 'निसीगइ' निपीदति उपविशति, निषद्य-उपविश्य एवमवादीत् वक्ष्यमाणप्रकारेण स्वमनस्युक्तवतीसंशयका लेश भी नहीं है। (इच्छिय मेयं देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ! यह स्वप्न फल वाञ्छिनीय है । [पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया] हे देवानुप्रिय। यह विशेषरूप से वान्छनीय है। (सच्चेणं एसमटे ज णं तुम्भे वह त्तिक? तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ) नाथ-जो बात आप कह रहे है वह सर्वथा सत्य है ऐसा कहकर वह रानी मुझे सर्वोत्तम स्वप्न आया हैइस बात को स्वीकार करती है (पडिच्छित्ता सेणि एणं रन्ना अब्भणुण्णाया समाणी) स्वीकार करके फिर वह श्रेणिक राजा से आज्ञापित होकर (णाणामणिकणगरयणभत्तिचिनाओ भदासणाओ) उस अनेक विधमणि, कनक एवरत्नोंकी रचना से विचित्र बने हुए भद्रासन से (अन्भुढेइ) उठी-और (अन्सुहिता) उठकर (जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छई) उठकर जहां अपनी शय्या थी वहां पर गई । (उवागच्छित्ता सयंसि सय. णिज्जंसि निसीयइ) जाकर वह अपनी उस शय्या पर बैठ गई। [निसी के देवानुप्रिय ! २मा स्वमनु ३७ ४२छनीय छ. (पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया) डे देवानुप्रिय ! २॥ सविशेष३ छिनीय छ. (सच्चेण एसमढे जणं तुम्भे वदत्ति कट्ठ तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ) 8 1 1 2 पात तमे ४ी २हा छ। તે એકદમ સાચી છે, આમ કહીને રાણીએ પિતે જોયેલું સ્વપ્ન સાચું છે, એ વાત स्वीरे छे. (पडिच्छित्ता सेणिण्णं रन्ना अभणुग्णाया समाणी) स्वार ४ीने ते श्रेणुि: २२०१ पासे मा बने (णाणामणिकणगरयंण भत्ति चित्ताओ *दायमाओ) मने प्रारना भए सुवर्ण मने रत्ननी स्यनाथी विचित्र undl द्रासन ५२थी (अन्भु) ली थळ, भने (अन्मुहिता) ली थने (जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छई) न्यो पातानी शय्या ती त्यां 15 (उवागच्छित्ता सयंसि सणिज्जंसि निसीयइ) ने ते पातानी शय्या पर मेसी 18. (निसी.
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy