SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 626
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्रे ५९४ जोयणाई' उत्कर्षेण तु द्वादशयोजनममाणा भवन्तीति । एवं जहा एगिंदिय महाजुम्माणं पढमुद्देस वहेव' एवं प्रकारेण यथा एकेन्द्रियमहायुग्मानां पञ्चत्रिंशच्छतकस्य प्रथमोद्देश के कथिता तथैवेहापि सामग्राऽपि ज्ञातव्या । 'नवरं तिन लेस्साओ देवा न ववज्र्ज्जति' नवरं प्रथमो देशका पेक्षया इदमेव वैलक्षण्यं यत् प्रथमो देश के चतस्रो लेश्याः कथिता तु तिन एव कृष्णनीलकापोवाख्या ज्ञातव्याः इह च देवा नोत्पद्यन्ते, अत्र तेजोलेश्याया असद्धाचात् 'सम्पद्विठी वामिच्छादिट्ठी वा ' सम्यग्दृष्टयो वा अपर्याप्तावस्थायां सास्वादन सम्यक्त्वापेक्षया, मिथ्या दृष्टयो और 'उक्कोसेण' पारसजोयणाई' उत्कृष्ट से १२ योजन प्रमाण होती है । ' एवं ' जहां एगिंदिय महाजुम्माणं पढमुद्देसए तहेव' इस प्रकार जैसा एकेन्द्रिय महायुग्मों के सम्बन्ध में ३५ वे शतक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है वैसाही वह स्वच कथन यहां पर भी कालेना चाहिये । 'नवर' तिनि लेखाओ देवा न उचवज्र्ज्जति' परन्तु उस प्रथम उद्देशक की अपेक्षा केवल यहां विशेषता है कि वहां पर चारलेश्याओं का होना कहा गया है और यहां तीन लेश्याएं होती हैं ऐसा कहा गया है। वहां पर देवों का उनमें एकेन्द्रिय में उत्पाद बतलाया गया है पर यहां वह नहीं होता है ऐसा कहा गया है। इसीलिये यहां तेजोलेश्या नहीं होती है । 'सम्मदिडी वा मिच्छादिट्ठी वा' ये सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होते हैं । अपर्याप्तावस्था में सास्वादन सम्यक्त्व का इनमें सद्भावपाया जाता है इस अपेक्षा से इन्हें सम्यग्दृष्टि कहा गया है ! 'नो सम्मामि प्रभाणुनी होय हे भने 'उक्कोसेणं' बारस जोयणाई' उत्सृष्टथी मार १२ योजन अभाधुनी होय छे. 'एव' जहा एगिदियमहाजुम्माण पढमुद्देस ए तहेव' આ રીતે એકેન્દ્રિય મહાયુગ્માના સખ ધમાં જે પ્રમાણે પાંત્રીસમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ કથન અહીંયાં પણુ संपूर्ण सम सेवु 'नवर' तिन्नि लेस्सा ओ देवा न ववज्जंति' परंतु पहेला ઉદ્દેશાના કથન કરતાં આ કથનમાં કેવળ એજ વિશેષપણુ છે કે—ત્યાં લેશ્યાએ ચાર હાવાનું કથન કરવામાં આવેલ છે, તથા અહિયાં ત્રણ લૈશ્યાએ હાય છે તેમ કહેલ છે, ત્યાં દેવાના ઉપપાત આ એકેન્દ્રિયેામાં હાવાનુ કહેલ છે, પરંતુ અહિયાં દેવાની ઉત્પત્તી થતી નથી તેમ કહેલ છે તેથી આ પ્રકરણમાં तेलेयेश्याना सलव होतो नथी. 'सम्मदिट्ठी वा मिच्छादिट्ठी वा' या सभय દૃષ્ટીવાળા અને મિથ્યાખીયાળા હાય છે. અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં સાસ્વાદન સમ્યકૃત્વ તેએમાં હોય છે. તે અપેક્ષાથી તેને સમ્યગ્દૃષ્ટિવાળા કહેલ
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy