SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 625
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काजीका श० ३६ अ. श. १ उ. १ कृ. कृतयुग्मडीन्द्रियजीवनि० ५९३ उपपातो यथा व्युत्क्रान्तौ प्रज्ञापनायाः पष्ठे पदे तिर्यग्भ्यो वा मनुष्येभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते इत्युत्तरम् । 'परिमाणं सोलस वा संखेज्जा वा उववज्जति असं'खेज्जा वा उववज्जति' परिमाणं षोडश का संख्याता वा ते सोत्पद्यन्ते असंख्येया वा सहैवोत्पद्यन्ते इति । 'अवहारो जहा उप्पलुईसए' अपहारस्तु यथा उत्पलोद्देशके कथित स्वथैव तत एवादनन्तव्यः । एतस्या एव एकादश शतकस्य प्रथमोदेशके । 'ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्न इभागं' शरीरावगाहना हीन्द्रियजीवानां जघन्या अंगुळस्पासंख्येयभागपरिमिता 'उक्को सेण वारसदेवों में ले आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं ? उबवाओ जल बक्कीए' हे मौनल ! जेल कि ज्ञापना के छटे व्यक्रान्ति पद में ऐसा कर गया है कि मे तिर्यो से आकर के अथवा agar में से आकर के उत्पन्न होते है ऐसा ही कमन कहां पर करलेना चाहिये | 'परिमाणं सोलला, संसेज व अलखेा वा उचवज्जंति' एक समय में थे कितने उत्पन्न होते है ? तो इस सम्बन्ध में ऐसा कहना चाहिये । कि ये एक समय में १६ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते है । 'अवरारो जहा उप्पलदेसर' उत्पल उद्देशक में इसी के ११ वें शतक के प्रथम उद्देश में अपार के सम्बन्ध में जो कथन आया हैं वही यहां पर भी समझना चाहिये | 'ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग' इन हीन्द्रिय जीयों की शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यात वें भाग प्रषण होती है प्रश्नमा उत्तरमां प्रभुश्री गौतमय्वामीने उहे थे - 'उववाओ जहा वज्रतीए' डे ગૌતમ! પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના વ્યુત્કાન્તિપદમાં જે પ્રમાણે કહ્યુ છે એજ પ્રમણે અહિયાં પણુ સમજવુ. અર્થાત્ બ્રુકાતિ પદમાં એવું ડહેલ છે કે–તેએ તિય થયે નિકામાંથી આવીને અથવા મનુષ્યામાથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, એજ પ્રમાણેનુ उथन अहिया पाशु सम सेवु 'परिमाण खोलसवा सखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जति' मे समयमां गा डेटा त्यन्न थाय छे ? तो या संबंधां એવું કહેવું જોઈએ કે આ એક સભ્યમા ૧૬ સેાળ અથવા સંખ્યાત અથવા असभ्यात उत्यन्न थाय छे. 'अवहारो जहा उपलुदेसए' त्यस उद्देशाभा એટલે કે આ ભગવતી સૂત્રના ૧૧ અગિયારમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં આમના અપહારના સંખ...ધમાં કહેવામાં આવેલ છે, તે સઘળું કથન અહિયાં सम'. 'सोगाहणा जहन्नेण' अंगुल असरखेज्जइभाग' मा मे इन्द्रिय વાળા જીવેાના શરીરની અવગાહના જન્ય આગળના અસાતમાં ભાગ STO 194
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy