SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 580
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४८ भगवतीस्त्र भंते ! पढमसमयकडजुम्मकडजुम्म एगिदियत्ति काल भो केवच्चिर होति' ते खल भदन्त ! प्रथम समयकृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रिया इति कालतः कियचिरं भवन्ति ? इति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि' 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक्वं. समयं' एकपमयमात्रमेर ते भवन्तीति ६ । ‘एवं ठिईए वि' एवं स्थिवावपि स्थितिरपि तेषामेकसमयमात्रैवेति ७ । 'ससुग्घाया आदिल्ला दोन्नि' समुद्घातो आधौ द्वौ वेदनाकपायरूसी भातः ८ । 'समोहया न पुच्छिति' समवहता इति न पृच्छयन्ते ९। 'उचट्टणा न पुच्छिति ' उद्वर्तना न पृच्छयते प्रथम समयकत्वादेव एतयोः समुद्घातोद्वर्तनयोरसंभवादिति १० । 'सेस तहेव सवं निरवसेस' शेपम्-उत्पादपरिणामादिकं सर्व पोडरपि महायुग्मेषु प्रथमोदेशकवदेव 'ते णं भंते ! पढम समयकडजुम्मकडजुम्न एगिदियत्ति कालओ केवचिचरं होति' हे अदन्त ! ये प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमाण एकेन्द्रिय जीव कालकी अपेक्षा कितने समय तक रहते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-एक्कं समय' हे गौतम ! ये एक समय मात्र ही रहते हैं ६ । 'एवं ठिईए वि' इस प्रकार स्थिति भी इनकी एक समय मात्र की होती है ७ । 'समुपाया आदिल्ला दोन्नि' समुद्घात यहां आदि के दो होते हैं। वेदना समुद्घात और कषाय समुद्घात ८ । 'समोहया न पुच्छिज्जति' ये मारणान्तिकसमुद्घात करते हैं क्या ऐसी बात यहां नहीं पूछनी चाहिये तथा उद्वर्तना के सम्बन्ध में भी नहीं पूछना चाहिये। क्योंकि ये प्रथम समयवर्ती होते हैं, इसलिये इन दोनों की यहां संभावना नहीं है । १० 'लेसं तहेच सव्वं निरवसेस' डत नथी. ५ ते णं भते ! पढमसमय कडजुम्म कडजुम्म एगिदियत्ति कालओ केवच्चिर होति मगवन् मा प्रथम समयमा ५न्न थयेकृतयुग्म કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જી કાળની અપેક્ષાથી કેટલા સમય સુધી २ छ ? 40 प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ है-'एक समय' है गीतम! सा मे समय मात्र २३ छे. 'एवं ठिईएवि' से प्रमाणे तन्मानी स्थिति ५ मे समयमानी १ डाय छे. ७ 'समुग्घाया आदिल्ला दोन्नि' त्याने माहिना ये समुदधाता डाय छे. ते मे वहना समुद्धात भने ४ाय समुद्धात छ. ८, 'समोहया न पुच्छिज्जति' ते ભારણાન્તિક સમુઘાત કરે છે? એ પ્રમાણે નો પ્રશ્ન અહિ થતું નથી તથા ઉદ્વર્તનાના સંબ ધમાં પણ પ્રશ્ન કર નહીં કેમકે તેઓ પ્રથમ સમયમાં રહેવાવાળા હોય છે. તેથી તે બનેની સંભવના અહિયાં રહેતી નથી, 10 'सेस तहेव सव' निरवसेस' मा भी सघY Sपा, परिभाषा
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy