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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ.२ सू०१ प्रथमसमयं कृ.कृतयुग्मैकेन्द्रियनि० ५४७ नाल्पा, इत्येवं नानात्वमत्रेति ? एव मन्यान्यपि नानात्वानि स्वधिया समुह्यानीति । 'आउयकम्मरस नो बंधगा अवंधगा' इमे प्रथमसमयकृत युग्मकृतग्मैकेन्द्रियजीवा: आयुष्ककर्मणो नो बन्धका भवन्ति अपितु अबन्धका एव भवन्ति २ । 'आउ. यस्स नो उदीरगा अणुदीरगा' आयुष्कस्य कर्मण उदीरका न भवन्ति किन्तु अनु. दीरका भवन्तीति ३ । 'नो उस्सासगा नो नीसासगा, नो उस्सासनीसासगा' न उच्छवासका उच्छवासवन्तो न भवन्ति, नो निःश्वासकाः, नो वा उच्छासनिःश्वासका भवन्तीति ४। 'सत्तविहवंधगा नो अट्टविहवंधगा' आयुष्कर्जानां सप्तविध कर्मणामेव बन्धका भवन्ति नो न तु अष्टविधामणां बन्धका भवन्तीति ५ ते ण अधिक एक हजार योजन की अवगाहना कही गई है । पर यहां वह प्रथम समय में उत्पन्न होने के कारण अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप से अल्प घतलाई गई है। इस प्रकार पूर्व उद्देशक की अपेक्षा अवगाहना कथन में भिन्नता है। इसी प्रकार से और भी अवशिष्ट भिन्नताएं अपनी बुद्धि से समझ लेनी चाहिये। 'आउकम्मस्त नो बंधगा अबंधगा' 'ये प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशिप्रमाण एकेन्द्रिय जीव आयुकर्म के बन्धक नहीं होते हैं किन्तु अबन्धक ही होते हैं। 'आउयस्स नो उदीरगा, अणुदीरगा' तथा ये आयुकर्म के उदीरक नहीं होते हैं किन्तु अनुदीरक होते हैं ३। 'नो उस्सा. सगा नो नीसासगा नो उस्सासनीसासगा' ये उच्छ्वासवाले नहीं होते हैं निश्वासवाले भी नहीं होते हैं उच्छ्वास निःश्वास वाले भी नहीं होते हैं, अर्थात् अनुच्छ्वास निःश्वासवाले होते हैं ४ 'सत्तविह बंधगा, नो अट्टविह बंधगा' ये आयुकर्म के सिवाय सात कर्मो के ही बन्धक होते हैं आठ कर्मों के बन्धक नहीं होते हैं ५। થવાને કારણે આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપથી અ૯૫ બતાવેલ છે. આ રીતે પહેલા ઉદ્દેશા કરતાં અવગાહનાના કથનમાં ભિન પણું આવે છે. આજ પ્રમાણે બીજું પણ બાકીનું ભિન્ન પણ પિતાની બુદ્ધિથી સમજી લેવું જાવ कम्मरस नो बंधगा अबधगा' मा प्रथम समयमा 6त्पन्न यये तयम કૃતયુગ્મ રાશિવાળા ‘એકેન્દ્રિ જી આયુકમને બંધ કરવાવાળા દેતા નથી. ५२ ५४४ डाय छे. 'आउयस्स नो उदीरगा अणुदीरगा' तथा मा माय કર્મની ઉદીરણું કરવાવાળા હોતા નથી પર તુ અનુકારક હોય છે. ૩ નૉ उस्सासगा नो नीसासगा नो उस्सासनीसासगा' तस। २७पासवाणा खाता नथी. નિવાસવાળા પણ હોતા નથી તથા ઉછવાસનિશ્વાસવાળા પણ હોતા નથી. ४ 'सचविहबधगा, नो अद्वविहधगा' मा मायुमन छोडीन सातम પ્રકતિને જ બધ કરવાવાળા હોય છે. આઠ કર્મપ્રકૃતિયાને બંધ કરવાવાળા
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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