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________________ २९४ भगवतीस्त्र सत्यमिति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तुपमा आत्मानं भावयन् विहरतीति ।मु० १॥ इति त्रयस्त्रिंशत्तमे शत के पञ्चममेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥३३-५॥ मूलम्-इविहा गं अंते ! कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता। तं जहा-पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया । कण्हलेस्ल भवसिद्धिय पुढवाकाइया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा-सुहमपुढवीकाइया य बायरपुढवीकाइया य । कण्हलेस्ल भवसिद्धिय सुहुमपुढवीकाइया गंभंते ! कइविहा पन्नत्ता ? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता तं जहा-पजतगा य अपज्जत्तगा य एवं बायरा वि । एवं एएणं अभिलावेणं तहेव चडको भेओ भाणियव्यो । कण्हलेस भवसिद्धिय अपजत्तग सुहुमपुढवीकाइया णं भंते! का कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ। एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देलए तहेव जाव वेदति । काविहा णं भंते ! अगंतरोववन्नगा कण्हलेल्ला भरसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा! पंचविहा अणंतरोववन्नगा जाव वणस्तइकाइया। अणंतरोवचाहिये 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति हे भदन्त ! भवसिद्धिक एके. न्द्रियों के विषय में जो आप देशानुप्रिय ने कहा है वह सघ सर्वथा सत्य ही है। ऐसा कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। ॥३३वें शतक के पांचवा अवान्तर शतक समाप्त ॥ સત્ય જ છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયતું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર ક્યાં વદના નમસ્કાર કરીને તે પછી સંયમ અને તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા પસૂ૦૧ રીત૨ શતક સમાત ! ૧૩-૫.
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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