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________________ भगवती ___ एवं काउलेस्से हि वि सयं भाणिय' एवम्-कृष्णलेश्यशतकवदेव कापोतछेश्यैरपि शतं भणितव्यम् । 'नवरं काउलेस्से ति भाणियबो' नवर' (कापोतछेश्यः) इत्यभिलापो भणितव्यः । पूर्वशते यत्र कृष्णनीलपदे निवेश्याऽऽलापका कुंत स्वत्र स्थाने (कापोतः) इतिपदं निवेश्य आलापका भणितव्याः। अन्यत्सर्व पूर्व वदेव ज्ञातव्यमिति ॥३३-४॥ - प्रयस्त्रिंशच्छतके एकेन्द्रियाणां तृतीयमेकेन्द्रियशतं चतुर्थमेकेन्द्रियशतं च समाप्तम् ॥३३-३-४॥ पञ्चमशतकः प्रारभ्यते मूलम्-कइविहा गं अंते ! एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता तं जहां-पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया भेओ चउकओ जाव वणस्तइकाइय त्ति । भवसिद्धिय अपज्जत्त सुहुमपुटवीकाइया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नन्ताओ ? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमिल्लगं एगिदियसयं तहेव भवसिद्धियसयं पि भाणियव्वं । ___ एवं काउलेस्लेहिं वि सयं भाणियच-नवर 'काउलेस्से त्ति भभिलावो भाणियवो' कृष्णलेश्यावालों के शतक के जैसा ही शतक कापोतलेश्यावालों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये, परन्तु पूर्व शतक में जहां 'कृष्ण' और 'नील' पद को विशेषित करके आलापक किया गया है-वहां 'कापोत' ऐसा पद रखकर आलापक कहना चाहिये, याकी का और सब कथन पहिले के जैसा ही जानना चाहिये, . ॥३३ वें शतक का चतुर्थ अवान्तर शतक समाप्त ॥ 'एव' काउलेस्सेहि वि सय भाणियन्त्र नवर' 'कण्हलेस्से वि अभिलावो माणिययो' वेश्यावा वाना शतना ४थन प्रमाणे ४ अपातलेश्यावा જીના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ પરંતુ પહેલાના શતકમાં જ્યાં જ્યાં '' भने 'नीट' ५४थी ४थन ४२वामां भाव्यु छ, त्यो त्यो पात' मे - પ્રમાણેનું પદ રાખીને આલાપકે કહેવા જોઈએ તે શિવાયનું બીજું સઘળું કથન પહેલાના કથન પ્રમાણે જ સમજવું. ચેથું અવાજતર શતક સમાપ્ત
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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