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________________ બટ read सूत्रे ज्ञानदर्शनलिङ्गानि यः क्रोधादिभिर्युनक्ति, ज्ञानादिकुशीलः कपायतो भवति विज्ञेयः ॥१॥ यः कपायात् शापं प्रयच्छति स चात्रि कुशीलो | सनसा क्रोधादीन्निवसाणो भवति यथासूक्ष्मः ||२॥ अथवाऽपि यस्तु पार्थैज्ञनादीनां विराधकः । स जानादि कुशीलो ज्ञेयो व्याख्यानभेदेन | ३ || इति । 'णियंठे णं भंते ! कहविहे पन्नत्ते' निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! कतिविधः मज्ञप्त इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोया' इत्यादि, 'नोयमा' हे गौतम! 'पंचविहे पनत्ते' पञ्चविधः मज्ञप्तो निर्ग्रन्थ इति 'तं जहा ' तथा 'पदमसमयणियंठे' प्रथमसमयनिर्ग्रन्थः, उपशान्वमोहाद्वायाः क्षीण मोहच्छद्मस्थाद्वापाश्च अन्तर्मुहूर्त इनमे जो ज्ञान दर्शन और लिन का फोध मान आदि कपापों में उपयोग फरता है वह ज्ञानकपाय कुशील दर्शनकपाय कुशील और लिङ्गकपाय कुशील है । जो रूपाय से शाप (आप) आदि देता है वह चारित्र कृपाय कुशील है और जो मात्र मन से क्रोधादि कषायों का सेवन करता है वह यथासूक्ष्म कषाय कुशील है । अथवा कपायों द्वारा जो जानादि को दूषित करता है वह ज्ञानादि रूपाय कुशील कहा गया है सो ही कहा है- 'माणदंसणलिंगे जो ' इत्यादि । 'नियंटे संते | विहे पन्नत्ते' हे भदन्त । निर्ग्रन्थ कितने प्रकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है- "गोयमा ! पंचबिहे पन्नत्ते' हे गौतम ! निर्ग्रन्थ पांच प्रकार का कहा गया है- 'तं जहा ' 'जैसे- 'पढसमयनिघंटे' समय निर्धन्य १ - उपशान्तमोह और લિ'ગનું જે ક્રોધમાન વિગેરે કાચેામાં ઉપચૈાગ કરે છે. તે જ્ઞાન કષાય કુશીલ દર્શન કષાય કુશીલ, અને લિંગ કષાય કુશીલ છે. જે કષાયથી શ્રાપ–વિગેરે આપે છે. તે ચારિત્ર કષાય કુશીલ છે અને જે માત્ર મનથી ક્રોધ વિગેરે કપાયાનુ સેવન કરે છે. તે યથાસમા કષાય કુશીલ છે. અથવા કષાયા દ્વારા જે જ્ઞાન વિગેરેની વિરાધના કરે છે, તે જ્ઞાનાદિ કષાય સુશીલ કહેવાય છે. अछे है- 'णाणदंसणलिंगे जो ' त्यिाहि 'निटे णं अंते ! इविहे पन्नत्ते' हे भगवन निर्थ था डेटा अहारना उडया छे ? या प्रश्नना उत्तरसां अलुश्री - 'गोयमा पंचविहे पन्नत्ते' गौतम ! निर्थन्थ पांच अहारना या छे. 'तं जहा' ते या प्रभा 'पढमसमयनिर्यटे' प्रथभ समय निर्भन्ध १ उपशान्तभोड भने श्रीशुभेोहनी
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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