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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.११ सू०१ अचरमनारकादीना० पापकर्मयन्धः ६६९ भंगा' नवरं मनुष्येषु समुच्चयमनुष्येषु सकपायिपु लोभकपायिषु च प्रथमद्वितीयो अबध्नात् बध्नाति भन्स्यति १, अवध्नात् बध्नाति न भन्स्यति, इत्याकारको द्वावाधावेव भङ्गौ वक्तव्यौ पापकर्मदण्ड के सकपायलोभकपायिपु आद्यास्त्रयो भङ्गकाः कथिता अत्र तु आधौ द्वावेव यत एते ज्ञानावरणीयं कर्म अवद्धा पुन बन्धका न भवन्ति कषायिणां सदैव ज्ञानावरणीयकर्मणां बन्धकत्वात् चतुर्थस्तु भङ्गोऽचरमत्वादेव न सम्भवतीति भावः । 'सेसा अट्ठारसचरम विहूणा' शेषा अष्टादशवरमभङ्गविहीनाः सकपायलोभकपायं च परित्यज्य शेषेषु जीवसलेष शुक्लपाक्षिकसम्यग्दृष्टिज्ञानमतिज्ञानादि चतुष्टय नोसंज्ञोपयुक्त वेदसयोगि मनोयोग्यादि त्रय साकारोपयुक्तानाकारोपयुक्तेषु अष्टादशपदेषु चतुर्थभङ्गवर्जा आद्यास्त्रयोऽपि अचरमनारक दण्डक में बतलाये गये हैं। 'नवर मणुस्सेसु सकसाइसु लोभकसाइलु य पढमबितिया भंगा 'परन्तु विशेष यह हैं कि सामान्य मनुष्यों में-साषायी और लोभकषायी मनुष्यों में यहां प्रथम और द्वितीय ये दो भग ही वक्तव्य हुए हैं। पर पापकर्म दण्डक में तो कषायी और लोभ कषायी मनुष्यों में आदि के तीन भंग वक्तव्य हुए हैं। यहां जो आदि के दो भंग कहे गये हैं उसका कारण ऐसा है कि थे ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांध करके पुनः बंधक नहीं होते हैं क्योंकि सकषायी मनुष्यों में ज्ञानावरणीय कर्मों की सदा ही घन्धकता रहती है। यह चतुर्थ भंग अचरम होने के कारण संभवित ही नहीं होता है। 'सेसा अट्ठारसचरमविहूणा' पाकी के १८ पदों में सकषाय एवं लोभकषाय पद को छोड़कर जीव, सलेश्य, शुक्ललेश्य, शुक्ल पाक्षिक, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, मतिज्ञानादिचतुष्टय, नोसंज्ञोपयक्त. वेद. कसाइसु लोभ कसाईसु य पढ मबितिया भंगा' ५२तु माह विशेषा मे छ - સામાન્ય મનુષ્યોમાં કષાયી અને લેભકષાયવાળા મનુષ્યોમાં અહિયાં પહેલે અને બીજે એ બેજ ભંગ કહ્યા છે. પરંતુ પાપકર્મના દંડકમાં તે કષાયવાળા અને લેભ કષાયવાળા મનુષ્યોમાં પહેલા ત્રણ ભંગે કહ્યા છે. અહિયાં આદિ પહેલે અને બીજો એ બે ભંગો કહેવાનું કહ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે તે જ્ઞાનાવરણીય કર્મનો બ ધ ન કરીને ફરીથી તેને બ ધવાળો હોતો નથી. કેમકે કષાયવાળા મનુષ્યમાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મોનુ બ ધકપણું સદાકાળ રહે છે. मयम पाथी या 1 समावित थते। नयी 'सेसा अद्वारसचरमविहूणा' બાકીના અઢાર પદોમાં સકષાય અને લેભ કષાય પદને છોડીને જીવ, ઇલ बेश्यावा, शु४१५क्षि, सभ्यष्टि, ज्ञानी, भतिज्ञान विगेरे यार सान,
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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