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________________ प्रमेययन्द्रिका टीका श०२६ उ.२ ५०१ चतुर्विशति जीवस्थाननिरूपणम् १२१ सम्यग्मिथ्यात्मनःपर्यवज्ञान केवलनानविभङ्गज्ञान नोसंज्ञोपयुक्तावेदकाकपायि मनोयोगवाग्योगायोगिल इति, एतानि एकादशपदानि न झुण्यन्ते अनन्तरोपपन्नात्वेनापप्तिकत्वात् । 'वागमंतरजोइलियवमाणियाणं जहा नेइयाणं तहेव ते सिभि न भण्णति' वानव्यन्तरज्योतिष्यपालिकाना मित्येपां जयाणाम् , यथा नैरयिकाणां तथैव तानि त्रीणि सभ्यगिमात्य-मनोयोग-वचोयोगात्मकानि पदानि न शण्यन्ते, एतेपातदभावादिति । 'सध्वेसिं जाणि सेणाणि ठाणाणि सनत्य पढमवितिया भंगा' सर्वेषां जीवानां यानि विशेषाणि स्थानानि सर्वत्र पदेषु प्रथम द्वितीयौ भङ्गो अबध्नात् वध्नाति भन्र यति१, अवधनात् वध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको वक्तव्याविति । 'एमिदियाणं सव्वत्थ पढमवितिया भंगा' एकेन्द्रियाणां पृथिवीकायिकादीनां सर्वत्र पदेषु प्रथम द्वितीयौ भङ्गो ज्ञातव्यौ मनुष्यों के अलेइयत्व, सम्पनिमात्य, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान विभंगज्ञान, नोदंशोपयोग, अवेदक, अरूषायित्व, मनोयोग, वचनयोग, और अोगिय थे ११ स्थान नहीं कहना चाहिये, क्योंकि ये ११ स्थान अनन्तरोपपन्नक मनुष्यों को अपर्याप्त होने के कारण नहीं होते हैं। 'पाणमंतरजोइसिपमाणियाणं जहा नेरहवाणं तहेव ते शिन्नि न भण्णति नैरशिको के जैसे दानव्यन्तर, ज्योतिक और वैमालिक इन को सम्मानिधाय मनोयोग और बचनयोग ये तीन स्थान नहीं कहना चाहिये, क्योंकि इन को इनका अभाव होता है। 'सन्नेसि जाणि लेखाणि ठाणाणि लव्वस्थ्य पढम रितिया भंगा' बाकी के समस्त जीयों के अधशिष्ट और समस्त स्थानों में प्रथम और द्वितीय ये दो भंग हो कहना चाहिये, 'एगिदियाणं सव्यस्थ पढम चिलिया भंगा' एजेन्द्रियों के समस्त पदों में प्रथम और द्वितीय भंग વિભળજ્ઞાન, નસ જ્ઞોપગ, અદક અઠષાયિત્વ, મગ, વચનગ અને અગિપણુ આ ૧૧ અગિયાર સ્થાને કહેવા ન જોઈએ કારણ કે-અનખતરોપપનક मनुष्याले अपर्याप्त पाना पारशे ते हाता नथी. 'वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं तहेव ते तिन्नि न भण्णंति' नयि ना ४थन प्रमाणे वानव्यન્તર, તિષ્ક અને વૈમાનિકને સસ્પેશ્મિધ્યાત્વ, મનોવેગ અને વચનો આ स्थान। ४वानानथी १२५ ते याना तेभरे अमाप डाय छे 'सव्वेसि जाणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्थपढमवितिया अंगा' मान सघा वान બાકીના તમામ સ્થાનમાં પહેલો અને બીજે આ બે ભોજ કહેવા જોઈએ. 'एगिदियाणं सव्वत्थ पढमबितिया भंगा' मे धन्द्रियाणामाने सपण पहीमा
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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