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________________ प्रमेयचन्ष्ट्रिका टीका श०२६ उ.१ १०४ नैरयिकाणां आयुकर्मबन्धनिरूपणम् ६०५ न वध्नाति भन्स्यति३, अवध्नात् न बध्नाति न गन्नति इति चतुर्भङ्गका पृच्छया संगृह्यते, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोगमा' हे गौतम ! 'बंधी न वंधइ वंधिस्सई' अबध्नात् न बध्नाति भन्तस्यति तेजोलेश्यापदे तृतीय एव भङ्गः। कथमत्र तृतीय एव भङ्गः ? प्रथम द्वितीयचतुर्थवङ्गाः कथं न ? इति चेदित्थम् - कश्चिद्देक स्वेजोलेश्यावान् पृथिवीकायिकेषु समुत्पन्नः, स चापर्याप्तकावस्थायां 'तेजोलेश्यावान् भवति तत्रायु ने वनाति, तेजोलेश्याद्धायामपगवायामायुषो वन्धं करोति तस्मात्तेजोलेश्यः पृथिवीकायिकः आयुषो बन्धनं कृतवान १, तेजोलेश्यायां विद्यमानायां यत स्तेजोलेश्या अपर्याप्तावस्थायामेव भवति ततोऽपर्या: प्तावस्थायां नायुर्वन्यो जायते इति । अनायतकाले आयुषो वन्धं करिष्यति च अथवा-पूर्वकाल में वह उसका बन्यक हुआ है, वर्तमान में वह उसका बन्धक नहीं है और न भविष्यत् काल में वह उसका बन्धक होगा ? ऐसे ये चार भंग विषयक प्रश्न यहां पृच्छा पद से गृहीत हुए हैं, इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा!' हे गौतम ! 'बंधी, न बंधह, बंधिस्तई तेजोलेश्या पद में केवल यह तृतीय भा ही होता है। शेष तीन भंग नहीं होते हैं। इस एक ही तृतीय भंग होने का कारण ऐसा है कि कोई तेजोलेश्यावाला देव पृथिवीकायिक में उत्पन्न हुआ वह अपर्याप्तावस्था में तेजोलेश्याबाला रहता है- १र वहां वह आयुका बन्ध नहीं करता है। पर जब तेजोलेश्या का काल समाप्त हो जाता है उसके बाद वह आयुका बन्ध करता है । अतः तेजोलेश्यावाला पृथिवीकायिक जीव आयुका बन्ध करने वाला हुआ, तेजोलेश्या के सदभाव में अपर्याप्तावस्था में वह आयका बन्धक नहीं होता है. तेजोलेश्या अपर्याप्तावस्था में ही होती है, अपर्याप्तावस्था में आयुका बन्ध तेनी म नहि २१ मा यारे 1 समधी प्रश्न 'पुच्छा' ५४थी ग्रहण थये। छे, मा प्रश्न उत्तम प्रभुश्री ४३ छे है-'गोयमा' हे गीतम! 'बंधी, न बधइ, 'वधिस्सइ' तश्या ५६मां ५ मे श्रीन म હોય છે. બાકીના ત્રણ ભાગે હોતા નથી ત્રીજો એકજ ભ ગ હોવાનું કારણ એ છે કે કોઈ તેજલેશ્યાવાળો દેવ પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન થયે, તે અપર્યાપ્તાવસ્થામાં તેલેશ્યાવાળે રહે છે. પરંતુ ત્યા તે આયુને બંધ કરતો નથી પરંતુ તેજલેશ્યાનો કાળ સમાપ્ત થઈ જાય ત્યારે તે આયુનો બંધ કરે છે. તેથી તે જેતેશ્યાવાળે પૃથવીકાયિક જીવ આયુ કમને બંધ કરવાવાળો થયો હોય છે, તે જેલેશ્યાના ભાવમાં અપર્યાપ્તાવસ્થામાં તે આયુકર્મને બંધ કરનાર હિતો નથી. તેજલેશ્યા અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં જ
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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