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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१ सू०४ नैरयिकाणां आयुकर्मवन्धनिरूपणम् ५९७ बध्नाति न भन्स्यतीत्याकारका । 'एवं सम्वत्थ वि नेरझ्याणं चचारि भंगा' एवं सर्वत्रापि पदेषु नारकाणां चत्वारो भङ्गा ज्ञातव्याः सर्वत्र पदेषु लेश्यादिपु चत्वारो भङ्गा योजनीयाः, यस्मिन् पदे वैलक्षण्यमस्ति ताश पदविषयकं वैलक्षण्यं द्योतयितुमाह-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं कण्हलेस्से कण्डपक्खिए पढमतइया भंगा' नवरं वैलक्षण्यमेतदेव यत् कृष्गलेश्यनारके कृष्णपाक्षिकनारके च प्रथमतृतीय भङ्गो एव विनियोज्यौ, लेश्यापदे कृष्णले श्येषु प्रथमतृतीयौ भङ्गौ भवतः, तथाहि कृष्णलेश्योनारक आयुष्कर्म अनधनात् अतीतकाले, वर्तमानकाले च बध्नाति, भविध्यत्काले भन्स्यति चेति प्रथमो भङ्गः १, द्वितीयस्तु अबध्नात् बध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको भङ्गो न संभवति, यतः कृष्णलेश्यनारकस्य तिर्यग्योनिके. पुत्पत्ति भवति तथा अचरमशरीरेषु मनुष्येषु कृष्णलेश्यादि पञ्चम नरकपृथिव्याअपेक्षा से है। "एवं सब्यस्थ्य वि नेरइयाण चत्तारि भंगा" इसी प्रकार लेश्यादिक समस्त पदों में भी नारकों के चार भंग जानना चाहिये, परन्तु जिस पद मे भिन्नता है उसे सूत्रकार स्वयं ही "नवर काहस्से कहपक्खिए पढप्रतच्या अंगा" इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट करते हैं-कृष्ण लेश्यावाले नारक में और कृष्णपाक्षिक नारक में प्रथम एवं तृतीय अंग ही होते है द्वितीय एवं चतुर्थ भंग नहीं होते हैं। क्यों कि कृष्णलयावाला जो नारक होता है वह भूतकाल में आयुकर्म का बन्धक होता हैं वर्तमान में भी वह उसका बन्ध करता है और अविष्यत्काल में भी वह उसका वध करनेवाला होता है। "अवधतात, बध्नातिल सन्स्थति" ऐसा जो द्वितीय भंग है वह यहां इसलिये नहीं होता है कि कृष्णलेश्यावाले नारक की तिर्थश्च योनि में उत्पत्ति होती है। तथा अचरमशीरी मनुष्यों में मपेक्षाथी छ, ‘एवं एत्थ वि नेरइया णं चत्तारि भगा' मे प्रभारी सेश्या વિગેરે સઘળા પદમાં પણ નારકે સંબંધી ચાર ભંગે સમજવા જોઈએ. ५२'तुरे पहा बिन पा छे, ते सूत्रा२ स्वयं 'नवरं कण्हलेसे कण्हपक्खिए पढमतइया भगा' मा सूत्रपा द्वारा प्रगट ४२ छे. है- श्या નારકમાં અને કૃષ્ણ પાક્ષિક નરકમાં પહેલો અને ત્રીજો ભંગ જ હોય છે. બીજે અને એથો ભંગ હોતા નથી કેમકે-કૃષ્ણ શ્યાવાળા જે નારક હોય છે, ભૂતકાળમાં તે આયુકર્મનો બંધ કરવાવાળો હોય છે. વર્તમાનમાં પણ તે તેનો બધ કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ તે તેને બંધ કરવાનો હોય છે. 'अवघ्नात् वध्नाति न भन्स्यति' मा प्रभारी नाले मील छ. ते माहियां એ માટે હોતો નથી કે કૃષ્ણ લાવાળા નારકની તિર્યંન્ચ એનિમાં ઉત્પની
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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