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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ. १ सू०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५७९ नीय कर्मविषयकः प्रश्नः, उत्तरमाह - ' जहेब' इत्यादि, ' जहेव पावं कम्पं तहेव मोहणिज्जं पि निरवसेसं जाव वैमाणिए' यथैव पापं कर्म तथैव मोहनीयमपि निरवशेषं यावद्वैमानिकः पापकर्मणो वन्धप्रकरणे यथा चतुरोऽपि भङ्गाः प्रदर्शिता तथैव मोहनीय कर्मणो बन्धेऽपि चत्वारो भङ्गा ज्ञातव्या स्वत्रामव्यमाश्रित्य - प्रथम भङ्गः १, क्षपकत्वप्राप्तियोग्य भव्य विशेषमाश्रित्य द्वितीयो भङ्गः २ उपशान्तमोहजीवमाश्रित्य तृतीयो भङ्गः ३, क्षीणमोहजीवमाश्रित्य चतुर्थः ४ इति । प्रकार से 'अनात् नाति भन्त्स्यति १ अवघ्नात् बध्नाति, नो भन्त्स्यति २ अबध्नात् न बध्नाति, भन्तस्थति ३ अवन्नात् न बध्नाति, न भन्त्स्यति४, यह त्रिकाल fears ४ भंग के सम्बन्ध में मोहनीय कर्म के बन्ध करने के विषय में प्रश्न है । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- ' जहेब पार्व कम्मं तहेब मोहणिज्जं पि निरवसेसं जाव वैमाणिए' हे गौतम! जैसा मैंने पापकर्म के बन्ध के सम्बन्ध में कहा है वैसा ही निरवशेष कथन मोहनीय कर्म के बन्ध के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये अर्थात् पापकर्म के बन्ध के सम्बन्ध में पहिले चार भंग प्रकट किये गये हैं इसी प्रकार से यहां पर भी चार भंग प्रकट करना चाहिये तथा च- किसी एक अभव्य जीव ने पहिले भूतकाल में मोहनीय कर्म का बन्ध किया है वर्तमान में वह इसका बन्ध करता है और भविष्यत् में भी वह इसका बन्ध करेगा ? ऐसा यह प्रथम भंग अभव्य जीव की अपेक्षा से कहा गया है ऐसा जानना चाहिये - द्वितीय भंग क्षपकता जिसे प्राप्त 'अब नात् बध्नाति भन्त्स्यति, अबध्नात् बध्नाति न भन्त्स्यति, अबध्नात् न बध्नाति भन्त्स्यति अबध्नात् न बध्नाति अन्स्यति' या रीते थे ज સમધી ચાર ભંગ સબધી મેાહનીય કર્મ બંધના સંધમાં પ્રશ્ન કરેલ છે. या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री छे - ' जहेव पाव' कम्म तहेव मोहणिन्जं पि निरवसेसं जाव माणिए' हे गौतम! पायना अधना संबंधभां પ્રમાણે મે' કહેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ` કથન માહનીય ક` બંધના સંબંધમાં પણ કહેવુ જોઈ એ. અર્થાત પાપ કર્માંના બંધના સમધમાં પહેલા ૪ ચાર ભગા પ્રગટ કરેલ છે, એજ પ્રમાણેના ચાર ભંગા અહિયાં આ મેહેનીય ક્રમ અધના સમધમાં પણુ સમજવા, તથા કાઇ એક સથા અલભ્ય જીવે પહેલા ભૂતકાળમાં મેહનીય ક`ના બંધ કર્યો છે, વમાનમાં તે તેના અધ કરે છે અને ભવિષ્ય કાળમાં તે તેના અંધ કરશે. આ રીતે આ પહેલા ભગ સર્વથા અલભ્ય જીવની અપેક્ષાથી કહેલ છે, તેમ સમજવુ', ૧
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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