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________________ ५५४ भगवतीसूत्रे " हौ भङ्ग ज्ञातथ्यौ, यतो नीलखेश्य नारकाणामुपशमश्रेणिक्षपकश्रेणी न भवत इति । एवं क्रमेण सर्वत्र अग्रे आलापकपकारः स्वयमूहनीयः । ' काउलेस्सेवि' कापोतिकलेsयोsपि सलेश्यनारकवदेव कापोतिकलेश्यनारकोऽपि भङ्गद्वयविशिष्टो ज्ञातव्यः । ' एवं कण्हपक्खिए' एवं सलेश्यनारकत्रदेव कृष्णपाक्षिकोऽपि ज्ञातव्य इति । 'सुकपक्खिए' शुक्लपाक्षिकः सछेश्यनारकच देव शुक्लपाक्षिकोऽपि अभय विशिष्टो ज्ञातव्य इति । 'सम्मादिट्ठी' सम्यग्दृष्टिः सलेश्यनारकचदेव सम्यग्दृष्टिरपि प्राथमिकमद्वयविशिष्टो ज्ञातव्य इति । 'मिच्छादिट्ठी' मिथ्या दृष्टिरपि प्राथमिकभङ्गद्वयविशिष्टोऽवगन्तव्य इति । ' सम्मामिच्छादिट्ठी' सम्यग्मिथ्यादृष्टिः सलेश्यनारकवदेव भगद्वयविशिष्टो ज्ञातव्य इति । 'पाणी' हैं । इन दो भंगो के होने का कारण यही है कि नीललेश्यावाले नारकों के उपशमता और क्षपकता नहीं होती हैं । इसी प्रकार से सर्वत्र आगे भी आलापक प्रकार अपने आप बना लेना चाहिये, इसी प्रकार से 'काउलेरसे चि' कापोतिक देयावाले नारक के भी ये आदि के ही दो भंग होते हैं अन्त के दो भंग नहीं होते हैं । 'एवं कण्हपखिए' सलेनारक के जैसे ही कृष्णपाक्षिक नारक जीव भी आदि के दो ही भंग वाले होते हैं- -अन्त के दो भगवाले नहीं होते हैं । 'सुक्क पक्खिए' तथा-सवेश्य नारक के जैसे ही शुक्लपाक्षिक नारक भी आदि के दो भंगो वाले ही होते हैं- अन्त के दो भंग वाले नहीं होते हैं । इनके अन्त के भंग नहीं होने का कारण ऊपर प्रकट कर दिया गया है । 'सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी, सम्सामिच्छादिट्ठी पाणी, आभिणिवोहिय नीललेश्यः नारकोऽत्रध्नांत, बध्नाति न भन्त्स्यतिर' थे प्रभा मडियां આ એ જ ભંગે થાય છે. આ એ ભગા થવાનુ કારણ એ છે કેનીલેશ્યાવાળા નારકેાને ઉપશમશ્રેણી અને ક્ષપકશ્રેણી આ બે શ્રેણીયા હાતી નથી. એજ રીતે મધે જ આગળ પણ આલાપાના પ્રકાર સ્વયં ખનાવી सेवा मान प्रमाणेना मासाहे- 'काउलेसे वि' अयेोति श्यावाणा नार જીવને પણુ આદિના એ જ ભગા હેાય છે. છેલ્લા એ ભાંગેા હાતા નથી. ' एवं ' कण्हपक्खिए ' येश्यावाजा नागछु भवना उथन प्रभा प्युपाक्षि४ ना२४ જીવને પણુ આદિના એટલે કે પહેલે અને ખીજે એ એજ ભગા ડાય છે, तेभने छेटला मे लगो होता नथी. 'सुकपक्खिप' सेश्यावाणा नारनी भ શુકલપાક્ષિક નારક જીવને પણ આદિના એટલે કે પહેલા અને ખીજો એ એ જ ભગા હાય છે. તેઓને છેલ્લા બે ભ`ગે હાતા નથી, તેને છેલ્લા એ लगी न दे।वानु' (२५ (५२ मतावे हे 'सम्मदिट्टी मिच्छादिट्टी सम्मा
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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