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________________ प्रमैयचन्द्रिका का श०२५७.८ सू०१ नैरयिकोत्पत्तिनिरूपणम् ४९९ यथानामकः कश्चित्पुरुषः तरुणो बलवान् ‘एवं जहा चोदशासए पढमे उद्देसर' एवं यथा चतुर्दशशतके प्रथमोदेश के कथितम् तथैव सर्वमिहापि ज्ञातव्यम् किया त्पर्यन्तं चतुर्दशशतकीय पथमोद्देशकमकरणं ज्ञातव्यं नाह-'जाव' इत्यादि, 'जाब तिसमएण वा विग्ग देणं उबवज्जति' यावत् त्रिसमयेन विग्रहेणोत्पधन्ते त्रिसामयिक विग्रहगत्या समुत्पधन्ते इत्यर्थः । उपसंहरति-'तेसिणं जीवाणं तहा सीहागई तहा सीहे गाविसए पन्नत्ते' तेषां खलु जीदानां तथा ताशी शीघ्रा. गतिर्भवति तथा तादृशः शीघ्रो गतिविपरश्च प्रज्ञप्ता-कथिच इति । तेणं भंते। जीवा कहं परभक्यिाउयं पकवि' से एकं भवं. परित्यज्य भवान्तरे गमनशीला जीवाः कथं केन कारणेन केन प्रकारेण वा परमायुकं परभवनिवहिकम् आयुष्कं कर्म प्रकुर्वन्ति परमवयापकमायुष्कं कर्म केन प्रकारेण वघ्नन्ति? इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अज्झ. वसाणजोगनिव्वतिएणं' अध्यवसानयोगनिर्वर्तितेन अध्यक्सानं जीवपरिणाम जैसे कोई बलवान तरुण पुरुप जला कि चौदहवें शतक के प्रथम उदेशक में कहा गया है 'जाश तिरूपएण धा विग्गणं उववज्जति' कि यावत् वह तीन लमयवाली विग्रह गाय से उत्पन्न होता है उसी प्रकार से 'तेलिणं जीवाणं सहा सीहा गई तहा लीहे गविलए पनत्ते' उन नारकादि जीवों की वैली ही शीघ्र गति होती है और उसी प्रकार से शीघ्रगति का विषय होता है। ते ! जी कहं परमवियाउयं पकरेंति हे लक्षान्त । एक मन को छोडकर दूसरे भव्य में जाने के स्वभाव बाले वे जीव किस प्रकार से परम के आयु कर्म का पन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! अज्झवलाणजोग्गनिन्दत्तिए ण' हे गौतम! वे जीव नामए केई पुरिसे तरुणे बलव एव' जहा चउद्दसमसए पढमे उद्देसए' गीतमा જેમ કઈ બળવાન તરૂણ પુરૂષ વિષે ચૌદમા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેલ छ, 'जाव तिसमएण वा विग्गहेणं उववज्जंति' है यावत ते त्रय समयवाणी विग्रह गतिथी 64-1 थाय छे. मे प्रमाणे 'वेसिणं जीवाणं तहा सीहागाई तहा सीहे गई विसए पन्नत्ते' ना२४ विगेरे वानी तेवी शीगति हाय छ. मन मे प्रमाणे शातिना विषय हाय छ, 'तेणं भंते ! जीवा कहीं परभवियाउय' पकरे ति' हे सगवन् मे सपने छ।डी। मीन सपा पाना હવભાવવાળા તે જી કઈ રીતે પરભવના આયુકર્મને બંધ કરે છે? આ असता त्तरमा प्रसुश्री ४९ छ - गोयमा ! भज्झवसाणजोगनिव्वत्तिएणं है
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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