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________________ भगवती पाणातिपाताधाश्रयद्वारजन्यानर्थानाम् अनुप्रेक्षा-अनुचिन्तनमित्य पायानुप्रेक्षा । अब खलु यत्तपोऽधिकारे प्रशस्ताप्रशस्तध्यानवर्णनं कृतं तदपशस्तस्य ध्यानस्य वर्जने प्रशस्तस्य ध्यानस्यासेवने तपो भवतीति कृत्वेति ज्ञातव्यमिति । 'सेत्तं याणे' तदेतत् संक्षेपविस्तारास्यां ध्यानं निरूपितमिति । ध्यानं निरूप्य व्युन्सर्ग निरूपयितुमाह-'से कित' इत्यादि, 'से किं तं विडसग्गे' अथ क स व्युत्सर्गः व्युत्सर्गम्य किं लक्षणं कियांश्च भेदा ? इति मश्नः, भगवानाह-'विउमग्गे दुविहे पन्नत्ते' व्युत्स्वर्गः द्विविधा प्रजासः । द्वैविध्यं दर्शयन्नाह -'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा तद्यथा-'विउलग्गे भावरि उसग्गेय' द्रव्यव्युत्सर्गच भावव्युतर्गश्चेति "से कि त दयविउसग्गे' अथ काम द्रव्यव्युत्सर्गः द्रव्यव्युत्सर्गस्य किं स्वरूपं झियन्तश्च भेदाः ? इति प्रश्ना, उत्तरमाह-'दब्यवि उसग्गे चउजिद्दे पन्नत्ते' द्रव्यअनर्थों का अनुचिमान । बहां नप के अधिकार में जो प्रशस्त अप्रशस्त ध्यानों का वर्णन किया गया है उसका कारण ऐसा कि अप शस्त ध्यान के वर्जन में और प्रशस्त ध्यान के उपादान में तप होता है । 'से तं झाणे' इस प्रकार संक्षेप और विस्तार से ध्यान का प्ररूपण किया। ध्यान के निरूपण के बाद अन्य व्युत्सर्ग तप का निरूपण सूत्रकार करते हैं-इसने गौतम ने प्रभुश्री ने ऐसा पूछा है-'से किं तं विउसग्गे' हे भदन्त ! व्युत्लग तप का क्या लक्षण है और वह कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री फाहते हि विउल्रगे दुबिहे पण्णत्ते' हे गौतम ! व्युत्तर्ग तप दो प्रकार का होता है 'तं जहा' जेल-'दछथि उलग्गे य, भावविउलग्गे य' द्रव्यव्युत्लग और माचव्युत्सर्ग 'लेकित दयविउलग्गे' हे વાળા અનથોનું ચિંતવન કરવું. અહિયાં તપના અધિકારમાં પ્રશસ્ત અપ્રશસ્ત યાનોનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, તેનું કારણ એ છે કે અપ્રશસ્ત ધ્યાનના વર્ણનમાં અને પ્રશસ્ત ધ્યાનના ઉપાદાન–પ્રાપ્તિમાં તપ હોય છે. 'सेत्त झाणे' २प्रमाणे सक्षेप भने विस्तारथी ध्यान नि३५ ४२८ छे. ધ્યાનના નિરૂપણ પછી હવે “બુત્સર્ગ તપનું નિરૂપણું સૂત્રકાર કરે છે. मामा श्रीगौतमचाभीय असुश्रीन मे पूछ्यु ४-'से कि त विउसग्गे' હે ભગવન વ્યુત્સર્ગ તપનું શું લક્ષણ છે? અને એ તપ કેટલા પ્રકારનું છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४९ छे हैं-'विउसग्गे दुविहे एण्णत्ते' गौतम! व्युत्सम त५ मे २तु डेल छे. 'त जहा' ते मा प्रभारी छ.-'दव्वविसग्गे भावविउसग्गे य' द्रव्यव्युत्सग मने साप व्युत्सग ‘से कि तं दवविरसग्गे' हे सगवन् द्रव्य व्युत्समन शु५१३५ छे ? भन तेना है।
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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