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________________ ૪૮૬ भगवतीसूत्रे क्रिया कायिका शैलेशीकरणनिरुद्योगत्वेन यस्मिन् तत् सगुन्छन्नक्रिया तच्चअप्रतिपाति अनुपरतरवमावम् एतादृशं समुन्छिन्न क्रियमतिपाति चतुर्थ शुक्लध्यान मिति 'सुक्काम णं झाणरस चत्तानि लक्खणा पन्नता' शुनलम्य खलु यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' खंती' शान्तिः क्षमेन्यर्थः 'ली' क्तिः निलोंभता 'अजवे' आजवं सरलवेत्यर्थः 'मावे' मार्दनम् मानत्याग इत्यथः 'सुकत्स णं झणरस चत्तारि आलस्यमा पानता' शुक्लस्य खन्ट व्यानरय चन्यारि आकभवनानि मज्ञप्तानि, 'तं जना' तद्यथा-'अबहे' अव्ययम् देवापसर्गजनितं भयं चलनं वा व्यथा तदभावोऽव्ययम् 'असंपोहे' अपमोहः देवादिकृतमायाजनितस्य मप्रतिपातिह-इसका तात्पर्य ऐसा है कि यहां पर माययोग का सर्वधा निरोध हो जाने से कायिकी क्रिया का सर्वथा उच्छेद हो जाता है, और शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है । अतः इस स्थिति का जो ध्यान है यह लमुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति शुक्लमान है। यों कि यह ध्यान भी अप्रतिपाति होता है । 'सुरसस्त ज झाणस्म चत्तारि लक्खणा पण्णता इल शुक्लध्यान के भी चार लक्षण कहे गये हैं। 'तं जहा' जैसे-'रबंनी, मुत्ती, अज्जये, मद्दवे' क्षान्ति-क्षा, मुक्तिलिलो मता, आर्जज-सरलता, और मोदेव मृदूता-मानत्याग 'सुक्कइल ण झाणस्त चत्तारि आलंगणा पण्णत्ता' शुक्ल यान के चार आल. बन कहे गयो है-'अबहे १' अव्यथा देवादि को ले उपसर्ग से जन्य मथ का होना अथवा चलायमान होना इसका नाप्न व्यथा है। इसका जो अमाद है व अन्यथा है । 'असंमोहे २ भ्रान्ति का अभाव-देवाછે. તેનું તાત્પર્ય એવું છે કે-અહિયાં કાગનો સર્વથા નિરાધ થઈ જવાથી કાયિકી ક્રિયાને સર્વથા ઉચ્છેદ થઈ જાય છે. અને લેશી અવસ્થા પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. જેથી આ સ્થિતિનું ધ્યાન છે, તે સમુનિ ક્રિયા અપ્રતિपाति शुसध्यान छे म मा ध्यान ५ मतिपाति डाय छे 'सुफरस णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' मा शुभसध्यानना या२ समये। ४ा छ. 'तौं जहा' I प्रमाणे छ -'खंती मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे' शान्ति क्षमा, भुति, निला भाव-ससपा मने भाई-भृड मा 'सुफस्स णं माणस्व चतारि आलवणा पण्णत्ता' शुध्यनना या२ सालमान हाछे. 'अव्यहे' १ अन्यथा-मेट-वाल्थिी 6५सया पापाणा ભયનું હોવું અથવા ઉપસર્ગથી ચલાયમાન થવું, તેનું નામ થથા છે. से व्यथा मां न य ते सव्यथा छ. १ 'असमोहे तिन मसा
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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