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________________ - 6 4 प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ २०१० आभ्यन्तरतपो निरुपण સવ काळण्णया' देशकालज्ञता प्रस्तावज्ञता अवसरोचितार्थसंपादनमित्यर्थ' | 'सन्वत्थेसु अपडलोमया' सर्वार्थेषु अमतिलोमता सर्वमयोजनेषु आराध्य गुर्वादेः सेवार्थेषु आनुकूल्यमिति । 'से त्तं लोगोवयारविणर' स एष लोकोपचारविनयः । ' से ' fore' स एष सतप्रकारको विनय निरूपित इति । अथ वैयावृत्थं दर्शयितुमाह 'से. किं तं वैयावच्चे' अथ किं तदुद्वैयावृत्यम् ? भगवानाह - 'वेयाबच्चे दस विदे पण्णत्ते' वैयावृत्यं दशविधं मज्ञप्तम् ' तं जहा ' तद्यथा - 'श्रायारियवेयावच्चे' आचार्यवैयावृत्पम् आचार्यस्य सुश्रूषाकरणम् 'उवज्झायचे यावच्चे' उपाध्यायस्य वैयावृत्यम् ' थेरवेयावच्चे' स्थविरवैयावृत्यम् स्थविरपर्यायेण ret' अवसरोचित प्रवृत्ति करना 'सम्वत्थेसु अपडिलोमया' आराध्वगुरु आदि के समस्त कार्यों में अवसर के अनुसार अनुकूल रूप से प्रवृत्ति करना अर्थात् गुरु आदि पूज्यजनों की सेवा आदि कार्यों में उनके अनुकूल रहकर प्रवृत्ति करना 'से से लोकोवचार विणए' यह सब लोकोपचार विनय है । 'से तं' बिगर' इस प्रकार से यहां लक विनय का कथन समाप्त हुआ । अब वैयावृत्य के सम्बन्ध में कथन किया जाता है- 'से किं तं वेद्यावच्चे' हे भदन्त ! वैधाहृत्य कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'वेधावच्चे इसविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! वैयावृत्त्य दश प्रकार का कहा गया है- 'तं जहा ' 'जैसे- 'आयरिय वेयादच्चे' आचार्य की शुश्रूषा करने रूप वैयावृष १ 'उचज्ज्ञायदेबच्चे' उपाध्याय का वैयावृत्त्यर 'थेर नेयावच्चे' स्थविर वयोवृद्ध साधु ५ 'देसकालन्नया' अवसरने योग्य प्रवृत्ति रखी है 'सव्वत्थेषु अपहिलोमया' आराध्य गु३ વિગેરેઆના સઘળા કાર્યાંમાં અવસર પ્રમાણે અનુકૂળ પણાથી પ્રવૃત્તિ કરવી અર્થાત્ ગુરૂ વિગેરે પૂજ્યેાની સેવા વિગેરે કાર્યોમાં તેને અનુકૂળ રહીને प्रवृत्ति रखी. 'से तं' दिए' मा रीते सहि सुधी विनयनुं धन रेस हे. हवे वैयावृत्या विषयभां उथन उदवासां गावे छे 'से किं' त' वैयावच्चे' હું ભગવન નૈયાનૃત્યના કેટલા પ્રકાર કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી छे }–“वेयादच्चे दसविद्दे पण्णत्ते' हे गौतम! वैयावृत्य इस अभारतुं उस थे. 'त' जहा' ते या प्रमाणे छे. 'आयरियवेयावच्चे' मायार्यनी सेवा हुम्वा ३५ वैयावृत्य १ ‘उवज्झाय वेयावच्चे' स्थविर - वये वृद्ध साधुनी अथवा दीक्षापर्यायथी भोटा साधुनी वैयावृत्य २ 'थेरवेयावच्चे' स्थविर वैयावृत्य' એટલે કે સ્થવિર–ચેવૃદ્ધ સાધુની અથવા દીક્ષાપર્યાયથી જયેષ્ઠની વૈયાવૃત્ય ૩ दुःखीत साधर्भीयाने भोषध विगेरे माथवानुं
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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