SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयञ्चन्द्रिका ढोका श०२५ उ.७ सू०१० आभ्यन्तरतवो निरूपणम् વૈ प्रयोग इति । अत्र यावत्पदेन अनायुक्तं स्थानम् अनायुक्त निषीदनम् अनायुक्तं स्वग्वर्तनम् अनायुक्तमुल्लङ्घनम् अनायुक्तं प्रलङ्घनमित्यतेषां ग्रहणं भवति तथा च अनायुक्तगमनादिभेदेन अप्रशस्तकाय विनयः सप्तविधो भवतीति । 'से च' अपसत्थकाविणर' स एप अपशस्तकाय विनयो दर्शित इति । 'से त्तं कायविए' स एष प्रशस्तामशरतभेदेन कायविनयो निरूपित इति । विनयान्तर्गतं लोकोपचार विनयं दर्शयितुमाह- 'से कि ते' इत्यादि. 'से किं तं लोगोवयारविणए' अथ कः स लोकोपचार विनयः ? इति प्रश्नः भगवानाह - ' लोगोवयारविre सत्तविहे पन्नत्ते' लोकोपचारविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः, लोकानामुपचारो व्यवहारः तद्रूपो यो विनयः स लोकोपचारविनयः स सप्तधा भिद्यते । सप्तभेदमेव यहां पावरपद ले - 'अनायुक्त स्थानम्, अनायुक्त निषीदनम्, अनायुक्त' स्वग्र वर्तनम्, अनायुक्तमुल्लङ्घनम्, अनायुक्त प्रलङ्घनम्' इन पर्दों का ग्रहण हुआ है । इत्यादि काया की अनुपयोग बिना - उपयोग की प्रवृत्तियों को रोकना अप्रशस्तकाय विनय है इस प्रकार अनायुक्त गमनादि के भेद से अप्रशस्तकाय विनय सात प्रकार का कहा गया है । 'सेतं कायचिणए' प्रशस्त अप्रशस्तकायविनय के भेद से कायविनय का पूर्ण कथन यहां तक किया । अब विनयान्तर्गत लोकोपचार विनय का कथन किया जाता है - 'से किं तं लोगोवयारविणए' हे भदन्त ! लोकोपचार विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'लोगोचवारविणए सत्तविहे पण्णत्ते' लोकोपचार विनय सात प्रकार का कहा गया है लोकों का उपचार-व्यवहार रूप विनय है वह लोकोपचार चिनय है । 'तं जहा ' लोकोपचार विनय के सात भेद 5 गडियां यावत्यद्दथी ‘अनायुक्त स्थानम्, अनायुक्तम् निषोदनम्, अनायुक्तम् त्वग्वर्तनम् अनायुक्तमुल्लंघनम् अनायुक्तं प्रल्लवनम्' मा यही थड उराया है, या रीते અનાયુક્તગમન વિગેરેના ભેદથી પ્રશસ્તકાય વિનય સાત પ્રકારના કહેલ છે. 'सेत कायविणए' मा रीते अशस्त भने अप्रशस्तना लेहथी अयविनयतु સ્વરૂપ કહેલ છે. હૅવે વિનયની આ તર્યંત લેાકેાપચાર વિનયનુ` કથન કરવામાં આવે છે. 'से कि त लोगोवारविणर' से लगवन् से अपचार विनय डेटला अारने। उडेस छे? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री छे - 'लो गोवयार विणए सत्तविदे पण्णत्ते' सोपियार विनय सात अगर उडेल छे. 'त' जहा' ते मा प्रभावे
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy