SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०८ प्रतिसेवनायाः निरूपणम् ४०९ पूर्वमदृष्ट्वा पादे त्यक्ते (प्रसारिते) यत्पुनः पक्षपेत् । न च पादं निवर्तयितुं शक्नोति एतत्सहसा कारणम् । इति छाया। पूर्व गुर्वादिकमपश्यन् पादप्रसारणं कृतम् अथ च पुनः पश्यति गुर्वादिकम् न च पादौ प्रसारिती विनिवर्तयितुं शक्नोति एतत्सहसाकरणम् इत्यर्थः । 'भयप्पभोसायत्ति' स्यात् हिंसादि भयेन प्रतिसेवना भवति, तया-प्रद्वेषाच्च पतिसेवना भवति, घद्वेषश्च कोपादिः। 'वीमंसत्ति' विमान शिक्षकादिपरीक्षणात् जायमाना पतिसेवना, एव कारणभेदेन दशप्रकारिका प्रतिसेवना भवति इति । 'दस आलो.. यणदोसा पन्नत्ता' दश आलोचना दोषाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-'आकंपइत्ते त्ति' आकम्प्याभिधः प्रथमो दोषः १ । 'अणुमाणइत्ते त्ति' अनुमाय-'अनुमान 'पुटिय अपासिउणं' इत्यादि । तात्पर्य इसका ऐसा है कि पहिले गुर्वा. दिक को नहीं देखकर जैसा किसी शिष्य ने पैर पसार दिये हों और पाद में उसने गुरु को देखलिया हो तो ऐसी हालत में भी जो वह पसारे हुए पैरों को नहीं सकोड़ सकता है तो यह सहसाकार है। क्योंकि ऐसी जो शिष्य के द्वारा क्रिया हुई है वह आकस्मिक हुई है। 'भयप्पओ सायत्ति' सिंह आदि के होने के भय से जो प्रतिसेवना होती है, और क्रोधादि के भय से जो प्रतिसेवना होती है वह प्रवेष प्रतिसेचना है ९। वीमसत्ति' विमर्श से-शिष्य आदि की परीक्षा करने से जो प्रतिसेवना होती है वह विमर्श प्रतिसेवना है १० इस प्रकार से यह कारण के भेद से १० प्रकार की प्रतिसेवना होती है। इस आलोयणा दोला पण्णत्ता' दश अलोचनादोष कहे गये हैं-जो इस प्रकार से हैं-'आकंपइत्ता, अणुमाणइत्ता इत्यादि प्रसन्न हुए गुरु थोरा प्रतिसेवना छ ५४ छ-'पुष्वि अपासिउण' त्याहि पानु तात्पय' એ છે કે પહેલા ગુરૂ વિગેરેને ન દેખવાથી કઈ શિષ્ય પગ પસાર્યા હોય અને તે પછી પિતાના ગુરૂને જોઈ લીધા હોય તો એ પરિસ્થિતિમાં પણ તે પસારલા પગને સ કોચી શકતો નથી. તે સહસાકાર કહેવાય છે, કેમકે शिष्य द्वारा मारे लिया थ छे, ते ममात थ छे ७ 'भयप्पओसायत्ति' હિંસા વિગેરે થવાના ભયથી જે પ્રતિસેવના થાય છે તે તથા ક્રોધ વિગેરેના अयथा 2 प्रतिसेवना थाय छे ते प्रद्वेष प्रतिसेवना छे ८ 'विमंसचि' विभशथा શિષ્ય વિગેરેની પરીક્ષા કરવાથી જે પ્રતિસેવના થાય છે. તે વિમર્ષ પ્રતિસેવના કહેવાય છે. ૧૦ આ રીતે કારણના ભેદથી દસ પ્રકારની પ્રતિસેવન થાય છે. 'दस आलोयणा दोसा पन्नत्ता' इस प्रारना मासायना होषी पाछे, २ मा अभाये छे.-आकंपइत्ता अणुमाणइजा' इत्यादि प्रसन्न थये। शु३ थाई प्रायश्चित्त १० ५२
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy