SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ ०६ त्रिंशत्तममन्तर्द्धारनिरूपणम् ३८५ .' एवं जाव अहक्खाय संजयस्स' एवं यावद् यथाख्यात संयतस्य अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसंपरायसंयतानां ग्रहणं भवतीति, ततथ छेदोपस्थापनीयादारभ्य यथाख्यात संयतान्तानां जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कृष्ट'तोऽनन्तं कालमंतरं भवतीति भावः । अथ समुच्चयेन बहुवचनमाश्रित्याह 'सामा इयसंजया णं भंते ! पुच्छा' सामायिक संयतानां खलु भदन्त ! कियत्कालं यावद - स्वरं भवतीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'नत्थि अंतरं' नास्ति अन्तरम् बहुस्वापेक्षया सामायिकसंयतानां कदापि अन्तरं न भवतीति । 'छेदोवद्वावणियपुच्छा' 'छेदोपस्थापनीयसंपतानां कियत्कालपर्यन्तं व्यवधानं भवतीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'जोयमा' हे गौतम ! ' जहन्नेणं तेवट्ठि वाससहस्ताई' जघन्येन त्रिषष्टिवर्षसहस्राणि व्यवसे एक बादर पुलपरावर्त्त होता है । 'एवं जाव अहक्खायसंजयस्स' इसी प्रकार से यापद से छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसंपरा संपत और यथाख्यात संयत के विषय में भी अपना अपना अन्तर समझलेना चाहिये। अब समुच्चय से बहुवचनको लेकर कहता है'सामाइय संजया णं भंते ! पुच्छा' है भदन्त ! बहुत सामायिकसंयत का कितने काल का अन्तर होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! नत्थि अंतरं' हे गौतम ! बहुत सामायिकसंघतों को अन्तर नहीं होता है क्योंकि इनमें कोई न कोई सामाधिकसंयत सदा विद्यमान रहता ही है । 'छेदोद्वावणिए पुच्छा' हे भदन्त ! छेदोपस्थापनीयसंतों का कितने काल तक का अन्तर होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोघमा ! जहन्नेणं तेचट्ठि वाससहस्साइं उक्को सेणं अट्ठारससागरोवमवर्त होय हे. 'एवं जाव अहम्खायसंजयस्स' प्रमाणे यावत् भे યથાખ્યાત સયતનુ એક ખીજા યથાખ્યાત સયતથી એક છેદેપસ્થાપનીયનુ બીજા છેપસ્થાપનીયથી અને પરિહારવિશુદ્ધિકનું ખીજા પરિહારવિશુદ્ધિક સયતથી અંતર-વ્યવધાન રહે છે. 'सामाइयसजयाणं भंते । पुच्छा' हे भगवन् भने सामायिक संयताने કેટલા કાળનુ' અતર હાય છે ? આા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહું છે કે'गोयमा ! नत्थि अंतर' हे गौतम । भने सामायि संयतानुगांतर होतु નથી. કેમકે તેમાં કાઈને કાઈ સામાયિક સયત સદા વિદ્યમાન રહે છે. 'छेदोवट्ठावणिए पुच्छा' हे भगवन् छेहेोपस्थापनीय संयतानु' अ ंतर हैटला अजनुं हाय हे? या प्रश्नमा उत्तरभां अनुश्री ४ छे ! - 'गोयमा ! जहणणं वेवट्ठि वाससहस्साइं उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवमकोड़ा कोडी आ' हे गौतम | 270 ४९
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy