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________________ , प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सु०५ त्रयोविंशतितम उदीरणाद्वारनि० ३५५ भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम! 'सत्तविह जहा वउमो' सप्तविध यथा वकुशः, सामायिकसंयतः सप्तविधकर्मणा सुदीरको वा भवति अष्टविधकर्मणा मुदीरकोवा भवति पदविधकर्मणामुदीरको वा भवति । तत्र सप्तविध कर्मप्रकृती रुदीरयन् आयुष्कवर्जिताः सप्त कर्मप्रकृती रुदीयति, अष्टविधकर्मप्रकृती रुदीरयन परिपूर्णा अष्टावपि कर्मप्रकृती रुदीरयति, पदविधकर्मप्रकृती रुदीरयन् आयुष्कवेदनीयवर्जिताः पट् कर्म प्रकृती रुदीरयतीति भावः । ' एवं जात्र परिहारविसुद्धिए' एवं यावत् परिहारविशुद्धिकसंयतः अत्र यावत्पदेन छेदोपस्थापनीयसंयतस्य ग्रहणं भवतीति । तथा च सामायिकसंयतवदेव छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्विकसंयतावपि सप्ताष्टपत्र विधकर्मप्रकृतीनामुदीरकौ भवेतामिति भावः । में प्रभुश्री कहते है - 'गोयमा ! सत्तविह जहा बउसो' हे गौतम ! सामायिकसंयत कुश के जैसे सात कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है । अथवा छह प्रकार की कर्मप्रकृतियों का उदोरक होता है । जब यह सात कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है तब यह आयु कर्म को छोडकर सात कर्म प्रकृतियों का उदोरक होता है और जब यह आठ कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है, तो उस अवस्था में पूरीं आठों कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है तथा - जब यह छह कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है-तब यह आयु और वेदनीय इन दो कर्मप्रकृतियों को छोडकर ज्ञानावरणीयादिक ६ कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है । ' एवं जान परिहारविसुद्दिए' इसी प्रकार से छेदोपस्थापनीय संयत और परिहारविशुद्धिक संयत भी सात आठ और ६ कर्मप्रकृतियों के उदीरक होते हैं । 'सुमपराए पुच्छा' हे भदन्त ! ४डे छे !-'गोयमा ! सत्तविह जहा बउसो' हे गौतम! सामायिक संयत मधुશના કથન પ્રમાણે સાત કાઁપ્રકૃતિચાની ઉદીરણા કરે છે. અથવા આઠ કમ્ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે. અથવા છ કેમ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે, જ્યારે તે સાત કમ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે, ત્યારે તે આયુષ્ય કર્માંને છાડીને સાત કમ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે. અને જ્યારે તે આઠ ક પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે ત્યારે તે પૂરેપૂરી આઠે કમ પ્રકૃતિયાની ઉદીરણા કરે છે. જ્યારે તે છ કમ પ્રકૃતિયેાની ઉદીરણા કરે છે, ત્યારે આયુષ્ય અને વેદ્નીય એ એ કમ` પ્રકૃતિયેાને ઘેાડીને જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે છ કમ પ્રકૃतियोनी उहीरा रे छे. 'एवं जाव परिहारविसुद्धिए' मे प्रभा होयસ્થાપનીય સયત અને પરિહાર વિશુદ્ધિક સહયત પણુ સાત-આઠ અને છ उर्भ प्रकृतियाना धीर होय छे. 'सुहुमसंपराए पुच्छा' से लगवन् सूक्ष्म
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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