SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . २२८ अंगवती स्वभावस्यति । 'वउसे पुच्छा' बकुशः खलु भवन्त ! कालयः क्रियच्चिरं भवतीति पृच्छा प्रश्नः, अगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एकं समयं' जघन्येन एक समयम् 'उक्कोसेणं देरणा पूरुषकोडी' उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटिर, बकुशस्य चारित्रप्राप्ते रनन्तरसमये एव मरणस्य संभवेन जघन्येन एक समयमिति कथितं तथा पूर्वकोटयायुका अष्टमपानन्तरं नमो चर्प चारित्रं गृह्णाति तदपेक्षया किञ्चिन्न्यूनपूर्वकोटिवर्पकाल उत्कर्षेण कथित इति । 'एवं पडि सेवणाकुसीलेवि कसायकुसीलेवि' एवम्-वकुशवदेव प्रतिसेवनानुशीलोऽपि नहीं हो जाता है तब तक पुलाकता को प्रतिपन्न हुआ जीबन भरता है और न पुलाक अवस्था से पतित होना है। इस कारण जघन्य और उत्कृष्ट काल इलका एक अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है। 'छउसे पुच्छा' हे भदन्त ! बकुश काल की अपेक्षा किन्ने फाल तक रहना है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयना ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्नोसणं देरणा पुव्यकोडी' हे गौतम ! काल की अपेक्षा पकुमा जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से कुछ का एक पूर्व कोटि तक रहता है । यहाँ जो बकुमा का जघन्य ले एक सालय का काल कहा गया है उसका कारण ऐसा है कि कुश के चरित्र प्राप्ति के बाद तुरत ही मरण होने की संभावना रहती है। पूर्व कोटि की आयुमाला आठ वर्ष के बाद नौ वें वर्ष में वारिन ग्रहण कर लेता है इल अपेक्षा उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्व कोटि का कहा गया है। - થતું નથી, ત્યાં સુધી પુલાકપણામાં રહેલા જ મરતા નથી, તથા પુલાક અવસ્થાથી પતિત પણ થતા નથી. તે કારણથી જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતમુહૂર્તકાળ તેમને કહેલ છે. 'वउसे पुच्छा' 3 मावन् मधुश जनी मपेक्षाथी असा ७ सुधा २७ १ मा प्रश्नता उत्तरमा प्रभुश्री ४ छे हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं एकाई समय' उक्कोसेणं देसूणा पुत्रकोडी' है गोतम ! ४जनी अपेक्षाथी गश જઘન્યથી એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક ઓછા એક પૂર્વકેટી સુધી રહે છે. અહિયાં બકુશને જઘન્યથી એક સમયને કાળ કહ્યો છે, તેનું કારણ એ છે કે–બકુશને ચારિત્ર પ્રાપ્તિ પછી તરત જ મરણ થવાની સંભાવના રહે છે, અને પૂર્વ કેટીની આયુષ્યવાળા આઠ વર્ષને અને ચારિત્રગ્રહણ કરી લે छ. ते अपेक्षाथी *४४ ४ ४ पूर्व अटीन हो छ, 'एवं पडिसेवणा
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy