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________________ प्रमैन्द्रिका टीका शं०२५ उ. ६ सू०१० विंशतितम' परिमाणद्वारम् ૨૨૭ 1 वेदनं करोतीति प्रश्नः, भगवानाद - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोवमा' हे गौतम! 'नियमं 'अनगडीओ वेदेह' नियमात् अष्टकमकृतीर्वेदयति नियमतोऽष्टानामपि कर्मणां - वेदनं करोति पुलाक इत्यर्थः 'एवं जात्र कसायकुसीले ' एवं यावत् कपायकुशील', यावत्पदेन बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोर्ग्रहणं भवति तथा च पुलाकत्रदेव वकुशप्रति'सेवनाकुशीलरुपायकुशीलाः सर्वेऽपि नियमतोऽष्टकर्मणां वेदनं कुर्वन्तीति । 'णियंठेगं पुच्छा' निर्ग्रन्थः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृतीर्वेदयतीति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'मोहणिज्जरजाओ सत्तकम्मपगडीओ वेदे ' मोहनीयः सतकर्मकृतीर्वेदयति निर्ग्रन्थः, न वेदयति मोहनीयं कर्म निर्ग्रन्थः, मोहनीय कर्मणामुपशान्तत्वात् क्षीणत्वाद्वेति भावः । 'सिणाए णं पुच्छा' स्नातकः खलु भदन्त ! कतिकर्मप्रकृतीर्वेदयतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! नियमं अहकम्मपगडीओ वेदेह' हे गौतम ! वह नियम से आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है । ' एवं जाव'सायकुसीले ' इसी प्रकार से बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील ये साधुजन भी नियम से आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं । 'णियंदेणं पुच्छा' हे भदन्त ! निर्ग्रन्ध | कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! मोहनीयवज्जाओ सत्तकमपणडोओ वेदेह' हे गौतम! मोहनीयकर्म को छोडकर वह साकर्म प्रकृतियों का वेदन करता है। लोहनीय कर्म का जो वह वेदन नहीं करता है सो उसका कारण यह है कि उसके मोहयनीय कर्म अथवा तो उपशान्त हो चुका होता है अथवा क्षीण हो चुका होता है । " 'सिणार णं पुच्छा' हे भदन्त ! स्नातक कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयना ! वेधणिज्ज आउय छे- 'गोयमा ! नियम अट्ठ कम्मरगडीओ वेदेइ' हे गौतम! ते नियमथी अतितुं वे रे . एवं जाव कस्रायकुसीले ' ४ प्रमाणे ખકુશ પ્રતિસેવનાકુશીલ, અને કષાયકુશીલ આ સાધુએ પણુ નિયમથી प्रतियोवेन रे 'नियंठेणं पुच्छा' हे भगवन् निर्थन्थ કેટલી કમ પ્રકૃતિયાનું વેદન કરે છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! मोहणीज्जवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ वेदेव' हे गौतम! भोडनीय કમને છેાડીને તે સાત કમ પ્રકૃતિયે તુ' વેદન કરે છે તે મેાહનીય ક`નુ વેદન કરતા નથી તેનું કારણુ એ છે કે તેઓને મેહનીય કમ કાંતા ઉપરાંત થઈ ચૂકયુ' હાય છે, અથવા ક્ષીણ થઇ ચૂકેલ છે 'सिणाएणं पुच्छा' हे भगवन् स्नातक डेंटली उभ प्रतियोनु वेहन
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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