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________________ heeद्रका टीका श०२५ उ. ६ खू०७ चतुर्दशं संयमहारनिरूपणम् rea वि' एवं निर्ग्रन्थवदेव स्नातकस्यापि संयमस्थानमजघन्यानुत्कृष्टमेव मति कषायाणामस्य क्षयस्य चाविचित्रत्वेन शुद्धेरे कवित्वात् एकत्वादेव तदजघन्योत्कृष्टं भवतीति । अथैतेषामेवाहुत्वमाह 'एएस ' इत्यादि, 'एसि णं भंते' एतेषां खलु भदन्त ! 'पुलागवउसपढि सेवा कसायकुसीले नियंसिणायाणं संजमद्वाणाणं कथरे कयरेहिंतो जाय विसेसाहिया वा' पुलाक वकुश प्रतिसेवन कुशील कषायकुशील निर्ग्रन्थस्नातकानां संगमस्थानानां कवरे कतरेभ्यो: ईसा वा बहुका वा तुल्या वा विशेशधिका वा इति प्रश्नः । भगवानाह = 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' गौतम ! 'सन्नत्योवे नियंठस्स सिणायस्स ये प्रकार की होती है । 'एवं सिणायात चि' इसी प्रकार से स्नातक के भी संगमस्थान अजघन्य अनुकृष्ट ही होना है क्यों कि कषाय का उपशम और क्षय एक प्रकार का ही होता है । इससे शुद्धि एक ही प्रकार की होती है। अतः उसकी एकता में वहां जयन्य और कृष्ट भेद नहीं होता है । L 5, ′′ 7 अब सूत्रकार इनके ही अल्प बहुत्व का कथन करते हैं- इस में गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'एएसि णं भंते ! पुलाग ise पडि सेवा कसायकुसीलनियंठविणायाणं संजमाणाणं कर्यरे करेहितो जाव विसेसाहिया वा' हे भदन्त ! इन पुलाक, वकुश, प्रति-सेवनाकुशील, कबायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक के संगमस्थानों में कौन किन से अल्प है ? कौन बहुत है ? कौन बराबर हैं ? औरकौन विशेषाधिक है ? इसके उत्तर में प्रभ्यु कहते हैं - 'गोगमा ! सब'एवं सिणायस्स वि' ४ मा स्नातन सयभस्थानो यहां अभ्घन्य अने અનુત્કૃષ્ટ જ ડેાય છે. કેમકે કાચાના ઉપશમ અને ક્ષય એકજ પ્રકારને હાય છે તેથી શુદ્ધિ એકજ પ્રકારની દાય છે તેથી તેની એકતામાં ત્યાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટના ભેદ હાતા નથી. હવે સૂત્રકાર તેઓના અલ્પમહુપણુ તુ' કથન કહે છે.-તેમા ગૌતમસ્વામી अलुने गोवु पूछे छे है - 'एएसि ण भते । पुलागबस पडि सेवणाकसायकुसील - नियंठसिणायाणं संजमट्टाणा ण कयरे कयरेहिंतो । जाव विसेसाहिया वा ભગવત્ આ પુલાક, અકુશ પ્રતિસેવના કુશીલ, નિગ્રન્થ અને સ્નાતકના સયમ સ્થાનામાં કાણુ કાનાથી અલ્પ છે ? કાણુ કાન થી વધારે છે ? અને કાણુ કાની બરાબર છે? તથા કાણુ વિશેષાધિક છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीने हे छे है- 'गोयमा ! सव्वत्थावे नियंठस्स, खिणायस्य एगे अजह- भ० १८
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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