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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०६ त्रयोदशं गतिद्वारनिरूपणम् १३६ 'अविराहणं पडुच्च णो इदत्ताए उववज्जेज्ना जान अहमिदत्ताए उववज्जेज्जा' अविराधनं प्रतीत्य नो इन्द्रतया वा उत्पद्येत यावत् नो लोकपालतया उत्पधेत किन्तु अहमिन्द्रनया वोत्पधे व अत्र यावत्पदेन सामानिकतया त्रायस्त्रिंशत्तयालोकपालतया एतेषां संग्रहो भाति इति । 'विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' 'विराधनं प्रतीत्य अन्यतरस्मिन् भवनपत्यादौ उत्पद्यत । गतिसंबन्धात् स्थितिमप्याह-स्थितिद्वारस्य पार्थक्येनाभावात् 'पुलायस्स णं भंते देवलोगेसु उववनमाणस्स केवयं कालं ठिई पन्नत्ता' पुलाकस्य खल्ल भदन्त ! देवलोकेतसाधु क्या इन्द्ररूप से उत्पन्न होता है ? अथवा सामानिक रूप से उत्पन्न होता है ? अथवा बायस्त्रिंशत् रूप से उत्पन्न होता है ? अथवा लोकपाल रूप से उत्पन्न होता है ? अथवा अहमिन्द्ररूप से उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी ले कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम! 'अविराहणं पडुच्च जो इंदत्ताए उववज्जेज्ना, जाव अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा' ज्ञानादिकों की विराधना को लेकर वह इन्द्ररूप से यावत् लोकपाल रूप से उत्पन्न नहीं होता है । किन्तु अहमिन्द्ररूप से वह उत्पन्न होता है। यहां यावत्पद से सामानिक, त्रायस्त्रिंशत् और लोकपाल इन देवों का ग्रहण हुआ है। तथा 'विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' विराधना की अपेक्षा करके वह भवनपत्यादिकों में से किसी एक में उत्पन्न हो जाता है। अब मूत्रकार गति के सम्बन्ध से स्थिति का भी कथन करते हैं, क्यों कि यहां स्थितिद्वार का कथन पृथक रूप से सूत्रकार ने नहीं किया है। 'पुलायस्सणं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणल्स केवयं कालं ठिई पन्नत्ता' इसमें उत्तरमा अनुश्री गौतभस्वाभान ४ छे -'गोयमा। 'अविराहणं पडुच्च, णो इंदत्ताए उववज्जेज्जा जाब अहमिदत्ताए उववज्जेज्जा' ज्ञानाहिना विराधनપણાથી તે ઈન્દ્રરૂપથી યાવત્ લેકપાલપણુથી ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ અહ. મિદ્રપણાથી તે ઉત્પન્ન થાય છે. અહિયાં યાવત પદથી સામાનિક, ત્રાયઅિંશત मन asle 2 | ७५ ४२राया छे तथा विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' विराधनानी अपेक्षाथी त सनति विगेरे : छ ! એક દેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. - હવે સૂત્રકાર ગતિના સંબંધથી સ્થિતિનું પણ કથન કરે છે–કેમકે मडिया स्थितिवानु स्थन तुटु सूत्र ४ नथी. 'पुलायस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववजमाणस्थ केवइयं कालं लिई पन्नत्ता' मा सूत्रथी गौतमस्वाभास
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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