SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवतीस्त्र भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'मूलगुणपडि सेवए वा होज्जा उत्तरगुणपडि सेवए चा होजना' मूलगुणमति सेवको वा भवेत् उत्तरगुणपति सेवको वा भवेत् 'मूलगुणं पडि सेवमाणे पंचण्हं आसवाणं अन्नयरं पडिसेवेज्जा' मूलगुणान् प्रतिसेवमानः मूलगुणान् विराधयन् पञ्चानामासवाणां प्राणातिपातादीनाम् अन्यतरम् आस्वयं अति से वेत तथा-'उत्तरगुणं पडि सेवमाणे दसविहस्स पञ्चखाणस्स अन्न परं पडि से वेज्जा' उत्तरगुणान् प्रतिसेवमानो दवविधस्य प्रत्याख्यानस्य अन्यतमं मत्याख्यानम् तत्र दशविधं प्रत्याख्यानम् 'अणागयमइक्कत कोडीसहियं' इत्यादि प्राग्व्याख्यातस्वरूपम्, अथवा 'णवकारपोरसीए' उत्तरगुण होते हैं इनकी निराधना करने वाला जो होता है वह उत्तर गुण प्रतिवेवक होता है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! मृल गुणपडिलेचए वा हे।ज्जा उत्तरगुणपडिलेवए वा होज्जा' हे गौतम । वह मूलगुण प्रतिलेखक भी होना है और उत्तरगुण प्रतिसेवक भी होता है । 'मूलगुण पडिलेवमाणे पंचण्हं भालवाणं अन्नयरं पडिसेवेज्जा जब वह मूलगुणों का विराधक होता है तथ वह पांच आरंवों में से फिली एक आस्रव का सेवन कर्ता होता है। प्राणातिपात आदि पांच पाप ही पांच आस्रव हैं इनमें से वह किसी एक आस्रव का सेवन करने वाला होता है। 'उत्तागुणपडिलेवमाणे दस विहरूस पच्चक्खा. जरत अन्नघर पडिलेवेज्जा' और जय वह उत्तरगुणों का विराधक होता है तब दश प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का विराधक होता है। ये प्रत्याख्यान 'अणागयमहक्कंत कोडीसहियं" કરવાવાળી હોય છે. તે ઉત્તરગુણ પ્રતિસેવક હોય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં असुश्री गीतमस्वामी ने ४७ छ -'गायमा ! मूलगुणपडिसेवए वा होज्जा उत्तरगुणपडिसेवए वा हजा' 3 गौतम ! भूगगुर प्रतिसेयर पाय છે, અને ઉત્તરગુણ પ્રતિસેવક પણ હોય છે. - 'मूलगुणं पडिसेवमाणे पंचण्डं आसवाणं अन्नयर पडिसेवेज न्यारे त મૂળગુણેના વિરાધક હોય છે, ત્યારે તે પાચ આસ્ત્રોમાંથી કઈ પણ એક આસવનું સેવન કરે છે પ્રાણાતિપાત મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મિથુન અને પરિગ્રહ પાંચ પ્રકારના પાપાજ પાચ આસ્રવ કહેવાય છે, તે પાંચ આસ્ત્રો પૈકી yि मेमाल नु सेनन ४२वापामा डाय छे. 'उत्तरगुणपडिसेवमाणे दस विहस्स पचक्खाणस्व अन्नयर पडिसेवेज्जा मने क्यारे उत्तरशुशानी विश. ધન કરવાવાળા હોય છે, ત્યારે દસ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાને પૈકી એક પ્રત્યાખ્યા जना विराध हाय छे. मा प्रत्ययान। 'अणागयमइक्कत कोडीसहिय'
SR No.009326
Book TitleBhagwati Sutra Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages708
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy