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________________ ८०१ प्रमेयचन्द्रिका का श०३५ २.४ २०५ शरीरप्रकारनिरूपणम् गत्या-उत्पत्तिस्थानं गच्छन्तो देशैजाः माक्तन शरीरस्थस्य विवक्षया निश्चलत्वात्, कन्दुकगत्या गच्छन्तः सर्वैजाः सर्वात्मना तेषां गमनप्रवृत्तस्वादिति । 'से तेणटेपंजाव निरेयावि' तत्चेनार्थेन यावद-निरेजा अपि अत्र यावत्-पदेन-'भंते ! एवं बुच्चइ जीवा सेया वि' इत्यस्य पदसन्दर्भस्य ग्रहणं भवतीति । 'नेरइया णं भंते! कि देसेया-सम्वेया' नैरयिकाः खलु भदन्त ! कि देशैजाः-सजावेति प्रश्न:भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! देशैजा अपि नैरयिका भवन्ति तथा-सर्वे जा अपि भवन्ति। 'से केणटेणं जाव-सम्वेयावि' तत्केनार्थन जीव इलिका (कीटविशेष) गति से उत्पत्तिस्थान में जाते हैं वे देशतः सकंप होते हैं। क्योंकि पूर्व शरीरस्थ अंश उनका गति क्रिया रहित होता है और जो कन्दुक की गति से उत्पत्ति स्थान में जाते हैं वे सर्वदेश से सकंप होते हैं, क्योंकि उनकी गति क्रिया सस्मिना होती है। 'से तेणटेणं जाव निरेया वि' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि जीव सकंर भी होते हैं और निष्कप भी होते हैं। ___अब श्री गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'नेरया णं भंते । कि देसेया सव्वेया' हे भदन्त ! नैरपिक क्या एकदेश से सकंप चलने. वाला होते हैं अथवा सर्वदेश से सकंप होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! नैरयिक एकदेश से भी सकंप होते हैं। और सर्व देश से भी सकंप होते हैं । अब पुनः श्रीगौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'से केणठे णं जाव सम्वेया वि' हे भदन्त ! ऐसा आप गौतमस्पामीन छ-"गोयमा । देसेया वि सम्वेया वि' गौतमतमा એકદેશથી પણ સકંપ હોય છે, અને સર્વદેશથી પણ સકપ હોય છે. તેનું કારણ એવું છે કે-જે જીવ ઈલિકા ગતિથી ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં જાય છે, તેઓ દેશતઃ સકંપ હોય છે કેમકે-પૂર્વ શરીરમાં રહેલ અંશ ગતિકિયા વગરને હોય છે. અને જે કંદુકની ગતિથી ઉત્પત્તિસ્થાનમાં જાય છે, તેઓ સર્વદેશથી સક પ હોય छ. भ?-तभनी गतिष्ठिया सापाजी डाय छे. 'से वेणटेणं जाव निरेया विमा ४२थी है गौतम ! में से यु छे 3-0 स४५ ५९ डाय छ, मन नि५ प य छे. ।। श्री गौतमस्वामी प्रभुश्रीन मे पूछे छे ?-'नेरइया णं भते ! कि देसेया सव्वेया' सपन नै२यि। शु शिथी स४५ सय छ ? 3 सशथा स४५ काय छे १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे है-'गोयमा !' હે ગૌતમ ! નરયિક એક દેશથી પણ સકંપ હોય છે. અને સર્વદેશથી પણ स४५ उय छे. ३रीथी श्री गौतभस्वामी प्रभुश्रीन मे पूछे छे ३-'से केण भ० १०१
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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