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________________ } 1 ८०० भगती दुविधा पन्नता' तत्र खलु ये ते संसारसमापन्नकाः ते द्विविधाः प्रजाः । 'तं ज़हा' तद्यथा- सेलेसि पडिन्नगा य-असेले सिपडिवन्नगा य' शैलेशी प्रतिपन्नकाश्राऽशैलेशी प्रतिपन्नकाथ । 'तत्थ णं जे ते सेळेसिपडिवन्नगा - ते णं निरेया' तत्र खल- ये ते शैलेशी प्रतिपन्नका स्ते खलु निरेजाः, निरुद्धयोगत्वेन स्वभावतयः न रहितत्वामिति । 'तत्थ णं जे ते असेलेसि पडिन्नगा ते णं सेया' तंत्र खलु ये ते अशैलेश पतिपन्नका स्ते खलु सैनाः सकम्पा इत्यर्थः । ' ते णं भंते -! कि देसेया- सन्वेया' ते अशैलेशों प्राप्ताः खलु मदन्त । किं देशजाः अंशतः कम्पनसहिताः सर्वेजाः - सर्वांशेन चलनस्त्रभाववन्तः किमिति प्रश्नः ? भगवा नाह - 'गोमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम | 'देसेया वि सव्वैया वि' देशैना अपि अंशतः सकम्पा अपीत्यर्थः सर्वेजा अपि सर्वतः कम्पनन्तोऽपि ईलिकाशैलेशी प्राप्त संसार समापन्नक और दूसरे शैलेशी अप्राप्त संसार सणपत्रक 'तणं जे ते सेलेसिपडिवन्नना ते णं णिरेया' जो शैलेशीमनिपन्नक हैं वे निष्कंप होते हैं क्योंकि जो मोक्षगमन समय के पहिले शैलेशी को प्राप्त हो जाते हैं उनके सब प्रकार से योगका निरोध हो जाता है । अतः स्वभावतः वे चलन रहित हो जाते हैं । 'तस्थ ण जे ते असेलेसि पडिवन्नगा ते णं सेना' और जो शैलेशी को प्राप्त नहीं हुए होते हैं वे सकंप होते हैं । अब श्री गौतमस्वामी पुनः प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं- 'ते णं भंते! किं देतेया सव्वेषा' हे भदन्त ! जो अशैलेशी को प्राप्त जीव हैं वे क्या एकदेश से सकंप-चलनवाले होते हैं ? अथवा सर्वदेश से सकंप होते है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! देसेया वि सन्या वि' हे गौतम! अशैलेशी प्राप्त जीव एकदेश से भी सकंप होते हैं और सर्वदेश से भी सकंप होते हैं । इसका कारण ऐसा है कि जो , શૈલેશી અવસ્થા પ્રાપ્ત સસાર સમાપન્નક અને બીજા શૈલેશી અવસ્થા અપ્રાપ્ત ससार सभापन्न! 'तत्थ णं जे ते सेलेसि पडिवन्नगा तेण' निरेया' ? शैलेशी प्रतियन्न! हे, ते निष्णुप होय ऐ, प्रेम-मोक्षगमनना समय पवां शैसेશીને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. તેમેને બધા પ્રકારથી ચેાગના નિરાધ થઈ જાય छे. भेथी स्वभावथी तेथे। यसन विनाना था लय छे, 'तत्थ णं जे ते असेलेसि पडिवन्नगा ते णं सेवा' भने शैोशीने आप्त थया नथी होता तेथे સંપ હાય છે. હવે ફરીથી શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને એવું પૂછે છે કે— 'वेणं भंते! कि देसेया सव्वेया' हे भगवन् भरौसेशी प्राप्त व उद्देशथी સફ'પ હાય છે ? અથવા સર્વાં દેશથી સકપ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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