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________________ प्रमेयवन्द्रिका टीका श०२५ उ. ३ सू०६ श्रेण्याः सादित्वादिनिरूपणम् ७० 1 " अथ गौतमस्वामी पुनर्लोकाकाशगीषु प्रदेशार्थतया यः विशेषः स कथ्यते 'लोगागास सेढीओ णं भते' इत्यादि । 'लोगागाससेढीओ णं भंते ! परसट्टयाए पुच्छा १' लोकाकाशश्रेयः खलु भदन्त ! प्रदेशार्थतया पृच्छा? हे मदन्त ! लोकाकाश श्रेणयः प्रदेशार्थतया किं कृतयुग्मस्वरूपाः ज्योजस्वरूपाः द्वापरयुग्मरूपाः कल्पोज रूपावेति प्रश्नः ? भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोमा' हे गौतम! 'सिय कडजुम्माओ' स्यात्- कृतयुग्माः लोकाकाशश्रेणयः । 'नो तेओयाओ' नो योजाः 'सिय दावरजुम्माओ' स्याद् - द्वापरयुग्मा' | 'नो कलिभोगा' नो कल योजाः ता लोकाकाशश्रेणय इति । स्यात् - कृतयुग्माः स्याद् - द्वापरयुग्माः इत्येतदेवं विचारणीयम् - रुचकार्द्धादारभ्य यत्पूर्व-दक्षिण वा लोकार्ड तदितरेण तुल्यं विद्यते, हैं पोजरूप अथवा द्वापरयुग्मरूप अथवा कल्पोज स्वरूप वे नहीं होती हैं क्योंकि वस्तु का जो स्वभाव है वह अनतिक्रमणीय होता है । अब श्री गौतमस्वामी लोकाकाश की श्रेणियों में जो प्रदेश रूप से विशेषता है वह प्रकट करते हैं- 'लोगागास सेढीओ णं भंते! पएसडयाए पुच्छा' इसमें गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है - है भदन्त | लोकाकाश की श्रेणियां प्रदेशरूप से क्या कृतयुग्मरूप हैं ? अथवा ज्योजरूप है ? अथवा द्वापरयुग्मरूप हैं अथवा कल्योजरूप हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं - 'गोयमा । लिय कडजुम्माओ, तो ते ओयाओं, सिय दावरजुम्माओ, नो कलिओगाओ' हे गौतम! लोकrata की श्रेणियां प्रदेशरूप से कदाचित् कृतयुग्मरूप हैं ज्योजरूप नहीं है कहाचित् द्वापरयुग्मरूप हैं कल्योजरूप नहीं हैं । इस कथन का भाव इस प्रकार से है - रुचकार्ध से लेकर जो पूर्व अथवा दक्षिण का लोका હાય છે, Àાજ રૂપ અથવા દ્વાપર યુગ્મ રૂપ અથવા કલ્ચાજ રૂપ તે હતી નથી! કેમકે વસ્તુને જે સ્વભાવ છે, તે અનતિકમણીય ડાય' છે, હવે શ્રી ગૌતમસ્વામી લેાકાકાશની શ્રેણામાં પ્રદેશપણાથી જે વિશેષપણુ छे, ते प्रगट १रे छे, 'लोगागास सेढीओ णं भंवे ! परसट्टयाए पुच्छा' या सूत्रधी શ્રી ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવુ' પૂછ્યું છે કે-હે ભગવન લેાક કાશની શ્રેણિયે પ્રદેશપણાથી શુ' કૃતયુગ્મ રૂપ છે ? અથવા જ્યેાજ રૂપ છે? અથવા દ્વાપરયુગ્મ રૂપ છે? અથવા કલ્ચાજ રૂપ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા શ્રી ગૌતમસ્વામીને अलुश्री डे - 'गोयमा ! सिय कडजुम्माओं, नो तेोया, सिय दावरजु म्माभो, नो कलिभोगाओं' हे गौतम! बोअअशनी श्रेणियों अहेश पाधा કોઈ વાર કૃતયુગ્મ રૂપ છે, વ્યે જ રૂપ નથી. કાઇ વાર દ્વાપરયુગ્મ રૂપ છે, ભાવ એવા છે કે-ચકાથી લઈને પૂ કલ્પેજ રૂપ નથી આ કથનના
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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