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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ सू०५ लोकस्य परिमाणनिरूपणम् माह-'लोगागाससेढीओ णं भंते' लोकाकाशनेणयः खलु भदन्त ! 'दबायाए कि संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, अर्णताओ, द्रव्यार्थतया-द्रव्यरूपेण कि संख्याताः असंख्याताः अनन्तावा लोकाकाशसम्बन्धिन्यः श्रेणयो भवन्तीति प्रश्नः ? भगवानाह'मोयमा'. इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो संखेन्जाओ, असंखेज्जाओ नो अणंताओ नो संख्याताः किन्तु असंख्याता लोकाकाशश्रेणयः, न वा-अनन्ताः, इहाऽसंख्याता एव श्रेणयः असंख्यातपदेशात्मकत्वाल्लोकाकाशस्येति । 'पाईग पड़ीणाययाओ णं भंते !' माचीमतीच्यायताः खलु भदन्त ! 'लोगागास सेढीओ' गेकाकाशश्रेणयः। 'दबट्ठयाए' द्रव्यार्थतया-द्रव्यरूपेण । 'किं संखेज्जाओ असंखेज्जाओ अर्णताओ' किं संख्याता:-असंख्याता:- अनन्ताः। हे भदन्त । प्रभु श्री से ऐसा पूछा है-'लोगागाससेढीओ ण भंते ! व्वट्ठयाए किं संखेज्जाओ असंखेज्जाओ अणताओ' हे भदन्त ! लोकाकाश की जो प्रदेश पङ्क्तियां है वे द्रव्य की अपेक्षा से क्या संख्यात हैं ? अथवा असं. ख्यात हैं ? अथवा अनन्त हैं ? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं 'गोयमा! नो संखेज्जाओ असंखेज्जाओ, नो अणताओ' हे गौतम । लोकाकाश के प्रदेशों की जो पक्तियां हैं वे संख्यात नहीं हैं अनन्त नहीं हैं किन्तु असंख्यात ही हैं। तात्पर्य इस कथन का यही है कि लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात कहे गये हैं इसलिये उनकी श्रेणियां भी असंख्यात ही हो सकती हैं अनन्त अथवा संख्यात नहीं । अनन्त श्रेणियां जो कही गई है वे सामान्य रूप से अलोकाफाश को लक्ष्य करके कही गई हैं क्योंकि अलोकाकाश के प्रदेश सिद्धान्तकारों ने अनन्त कहे हैं। 'पाईण पडीगाययाओ ण भंते! लोगागाससेढीओ दव्वट्टयाए कि संखेज्जाओ०' हे भदन्त ! पूर्व से पश्चिम तक लम्बी जो विनय श्री गीतभस्वामी प्रसुश्रीन से पूछे छे ४-'लोगागाससेढीओ ण भंते ! दव्वद्र्याए कि खेज्जाओ असंखेजोओ अण'ताओ' भगवन शनी જે પ્રદેશ પરત છે, તે દ્રવ્યની અપેક્ષાથી શું સંખ્યાત છે ? અથવા અસંખ્યાત છે ? કે અનંત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ સ્વામીને छ -'गोयमा ! नो संखेज्जाओ असंखेज्जाओ नो अगताओ' है गीतमा કાકાશના પ્રદેશોની જે પંક્તિ છે, તે સ ખ્યાત નથી તેમ અનંત પણ નથી પરંતુ અસંખ્યાત જ છે. કહેવાનું તાત્પર્યો એ છે કે-લાકાકાશના પ્રદેશ અસં. વાત કહ્યા છે. તેથી તેની શ્રેણી પણ અસ ખ્યાત જ હોય છે અનંત અથવા સંખ્યાત નથી અનંત શ્રેણિએ જે કહી છે તે અલકાકાશને લક્ષ્ય કરીને કહેલ छ. म-मसाशना प्रश। सिद्धांतशय सनत छ. 'पाईण पडीणाययाओ ण भंते ! लोगागाससेढ़ीओ दवट्ठयाए कि संखेज्जाओ' हे मग भ० ८६
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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