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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२३ सू०१ ज्योतिष्केपु जीवानामुत्पत्तिः ४४१ वोत्पयन्ते नाधिकेषु इति पूर्व प्रदर्शितमेर । 'उक्को सेणं तिनि पलिओचमाई उत्कर्षण श्रीणि पल्योपमानि एल्योपमत्रयममागा उत्कृष्टतः स्थितिभपतीत्यर्थः । एवं अणुधंधो वि' एवं स्थितियदेव जयन्येनोत्कृष्टाभ्यामनुबन्धोऽपि ज्ञातव्य इति । कायसवे. धस्तु 'कालादेसेणं जहन्नेणं दो पलिओचमाई दोहिं बासमयसहस्तेहिं अमहियाई' कालादेशेन जघन्येन द्वे पल्योपमे द्वाभ्यां वर्षशतमहनाभ्यामभ्यधिके 'तया 'उकोसेण चत्तारि पलि गोवसाई वाससयसहस्समभहियाई उत्कृष्टतश्च-वारि पल्योपमाणि वर्षेशतसहस्त्राभ्यधि कानि इति ३ । १ पल्योपम की है और 'उक्कोसेणं' उत्कृष्ट से 'तिन्नि पलि भोवमाई तीन पत्योपम की है। यद्यपि असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीवों की स्थिति जघन्य खेलातिरेक पूर्वकोटि की होती है। परन्तु यहां जो जघन्य स्थिति उनकी एक लाख वर्ष अधिक १ पल्यापम की कही गई है वह वर्ष लक्ष से अधिक पयोषा की स्थिति वाले ज्योतिष्कदेवों में उत्पन्न होने की वजह से कही गई है। क्योंकि असंख्यात्त वर्ष की आयुवाले जीव अपनी आयु से बृहत्तर आयुधोलों में उत्पन्न नहीं होते है। वह तो अपनी लमान आयु वालों में अथवा न्यून आयुवालो में ही उत्पन्न होते हैं यह बात पहिले कह दी गई है। ‘एवं अणुबंधो वि स्थिति के अनुसार ही यहां अनुबन्ध भी जाना चाहिये । कायसंवेध 'कालादेसेणं जहलेणं दो पलिओचनो दोहि वामलय महस्सेहिं अम हियोई' काल की अपेक्षा जवन्य ले दो लाख वर्ष अधि दो पल्योप से नाम वष अधिः १ मे पक्ष्यो५मानी छ. भने 'उक्कोसेण' या 'तिन्नि पलिभोवभाइ' र पक्ष्या५मानी छ भने सयात पनी भायुष्य વાળાં જીવની સ્થિતિ જઘન્યથી સાતિરેક-કઈક વધારે પૂર્વ ટિની હોય છે પરંતુ અહિયાં તેમની જઘ ય સ્થિતિ એક લાખ વર્ષ અધિક ૧ એક પલ્યોપમની કડી છે. તે એક લાખ વર્ષથી અધિક પલ્યોપમની સ્થિતિવાળા જ તિષ્ક દેવે માં ઉત્પન્ન થવાના કારણથી કહી છે, કેમકે અસ ખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવળે જીવે પોતાના આયુષ્યથી વધારે આયુષ્યવાળાઓમાં ઉત્પન્ન થતા નથી તે તે પોતાના સરખા આયુષ્યવાળાઓમાં અથવા ન્યૂન આયુષ્યવાળોઓમાં ઉત્પન્ન થાય છે એ पात पडसा ही छ. 'एवं अणुबंधों वि' अडियो स्थितिना ४थन प्रभारी अनुम'धर्नु अथ- 4] समायु. यसवय 'काठादेसेणं जहन्नेणं दो पलिओवमाई, दोहि वाससयसहस्सेहिं अमहियाइ” गनी अपेक्षाय धन्यथा में होम वर्ष मधि मे पक्ष्यापभनी छे. मने 'उक्कोसेण' Genा त 'चत्तारि भ० ५६
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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