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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२३ सू०१ ज्योतिष्केपु जीवानामुत्पत्तिः ४३३. 'तिरिक्खजोणिए हितो उववति' तियरपोनिकेभ्य आगत्य पद्यन्ते यद्वा 'मणु. रसेहितो उववज्जति' मनुष्येभ्य आगत्योत्पद्यन्ते इति प्रश्नः । हे गौतम ! नो नैर यिकेभ्य आगत्योत्पधन्ते, तिर्यग्योनिकेस्य आगत्योत्पद्यन्ते, मनुष्येभ्य आगत्यो. त्पयन्ते नो देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते इत्यादिकं सर्वे पूर्वप्रकरणानुसारेणैवावगन्तव्य कियत्पर्यन्तं पूर्वपकरणमनुमन्धेयं तत्राह-'भेदो जाव सन्निपंचिंदिय' इत्यादि । 'भेदो जाव सन्निपंचिदियतिरिक्खनोणिएहितो उपयज्जति' भेदो विशेपो यावत् यदा यिकों से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा-तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति' तिर्यग्योनिकों से आकरके उत्पन्न होते हैं ! अथवा 'मणुः स्सेहितो उववज्जति' मणुष्यों से आकरके उत्पन्न होते हैं ! इत्यादि इस' गौतम के प्रश्न के उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं-हे गौतम । ज्योतिषिक देव नारकों से आकरके उत्पन्न होते हैं न देवों से आकरके उत्पन्न होते हैं किन्तु तिर्यञ्चों से और मनुष्यों से आकरके उत्पन्न होते हैं। इत्यादि सब कथन पूर्वप्रकरण के अनुसार 'भेदो जाव सन्निपंचिंदियः तिक्खिजोणिएहिंतो उववज्जति' इस कथन तक जानना चाहिये। तात्पर्य इसका ऐसा है कि जब ज्योतिष्क देव तिर्यग्गोनिकों से आकरके उत्पन्न होते हैं ऐसा कहा जाता है तो उस कथन में एकेन्द्रियः दो इन्द्रिय, तेहन्द्रिय चौहन्द्रिय और अज्ञी पञ्चेन्द्रिय एवं संज्ञी पञ्चे न्द्रिय तियश्च ये भव आ जाते हैं। अतः वे न एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों से आकरके उम्पन्न होते हैं, न द्वीन्द्रिधतियश्चों से आकर के उत्पन होते 'कि नेरइएहितो उववज्जंति' शुत। नैमिाथी मावीने न थाय ? अथवा 'तिरिक्खजोणिहि तो ववज्जति' तिय ययानिमाथी सावन थाय? अथ'मणुस्सेहि तो उबवज ति' मनुष्यामाथी मापीने ५-न थाप छ? ગૌતમસ્વામીના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ તેઓને કહે છે કે-હે ગૌતમ! પતિ કદે નારકમાંથી આવીને ઉત્પન થતા નથી. તથા દેવોમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ તિયામાંથી અને મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. विगैरे सण ४थन माग ४२६ प्रभारी 'भेदों जाव सन्निप'चिदिय तरिका जोणिएहितो! उववज्जति' मा ४थन पर्यन्त सभ यु मा थन-तपय એ છે કે-જ્યારે પતિદેવ તથચ યોનિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, એવું કહેવામાં આવે છે, તે એ કથનમાં એક ઇંદ્રિયવાળા, બે ઈદ્રિય વાળ, ત્રણ ઇદ્રિયવાળ, અને ચાર ઈદ્રિયવાળા અને અસ જ્ઞી પંચેન્દ્રિય તથા સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ આ સઘળા આવી જાય છે, તેથી તેઓ એક ઈન્દ્રિ भ० ५५ .
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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