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________________ भगवती तथा 1 त्रिंशत्सागरोपमाणि एकत्रिंशत्सागरोपमा जघन्या स्थितिर्भवतीति । 'क्कोसे तेतीस सागरोवमाई' उत्कर्षेण त्रत्सागरोपमाणि त्रयखिंशत्सागरोपमा स्थितिर्भवति विजयादिदेवानामिति । 'सेसं तं चैव' शेषम् अत्र गाहनादिस्थित्यन्तातिरिक्तं सर्व तदेव पूर्वप्रकरणोदितमेव अवगन्तव्यमिति, भवादेशकाला देशाभ्यां कायसंवेधं दर्शयति- 'मवादेसेणं' इत्यादि । 'भवादेसे गं जहमेण दो भवरगहणाई' भवादेशेन भवापेक्षयेत्यर्थः जघन्येन द्वे भवग्रहणे 'aantar aat Haग्गहणाई' उत्कर्षेण चत्वारि भग्रहणानि 'कालादेसेणं जहन्नेणं एक्कतीसं सागरोवमाई वासपुदुतमन्महियाई' कालादेशेन जघन्येन एकत्रिंशत्सागरोपमाणि वर्ष पृथक्त्राभ्यधिकानि वर्ष पृथक्त्वाधिकत्रिशत्शागरोपमममाणकः कालमाश्रित्य जघन्येन काय संवेवः यथा - ' टक्कोसेणं छाबडि सागरोवमाई दोहिं पूजकोडीदि अमहियाई' उत्कर्षेण पट्पष्टि जहनेणं एक्कतीसं सागरोवमाई' स्थिति इनकी जघन्य से ३१ सागरोपम की होती है और 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई' उत्कृष्ट से ३३. सागरोपम की होती है । 'सेस तं चेत्र' इस प्रकार अवगाहना से लेकर स्थिति के अन्त तक के इन द्वारों को छोड़कर बाकी के ओर सब दारों का कथन पूर्वोक्त जैसा ही है ऐसा जानना चाहिये। 'भवादेसेर्ण जहनेणं दो भवग्गहणाई' भव की अपेक्षा कायसंवेध जघन्य से दो भवों को ग्रहण करने रूप है और 'उक्को सेणं चत्तारि भवग्गहणाई" उत्कृष्ट से वह चार भवों को ग्रहण करने रूप है। तथा 'कालादेसेणं जहनेणं एक्कतीसं सागरोवमाई वासपुहृत्तमन्नहियाई' काल की अपेक्षा यह कायसंवेध जघन्य से वर्षपृथक्त्व अधिक इकतीस सागरोपम का है और 'उक्कोसेणं छावहिं सागरोवमाह दोहिं पुत्रको डोहिं ** तेमनी स्थिति धन्यथी ३१ मे श्रीस सागशयनी होय छे. मने 'उक्कोंसेणं तेत्तीस ं स्वागरोवमाइ उत्सृष्टथी 33 तेत्रीस सागरोपमनी- होय छे, 'सेंस त'' चेव' 'मा रीते अवगाहनाथी बने स्थितिनाथन पर्यन्तना श्री દ્વારાને છોડીને બાકીના ખીજા સઘળા દ્વારા સંબંધીનું કથન પહેલા કાળા अभाषेनु ४ छे, तेम समन्वु' 'भवदेिसेणं' जहन्नेणं दो भवग्गहणाई' भवनी અપેક્ષાથી કાયસ વેધ જઘન્યથી ખેલવાને ગ્રહણ કરવા રૂપ છે. અને સો सेर्ण- चत्तारि भवग्गहणाई' उत्सृष्टथी ते 'यार भवने अड ४२वा ३५. 'तथा 'कालादेसेणं' जहन्ने एक्कतीस सागरोवमाइ' 'वासपुहुत्तमभहियेोई' કાળની અપેક્ષાથી કાયસ વૈધ જઘન્યથી વધુ પૃયત્વ અધિક એકત્રીસ भोगोपभना छे, अने ‘उक्कोसेन छावहिं सागरोवमाइ 'दोहि पुष्कोडीहिं L
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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