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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२१ सू०१ मनुष्याणामुत्पत्तिनिरूपणम् ३७२ सागरोपमा भवतीति । 'बंभलोए चत्तालीसं' ब्रह्मलोके चत्वारिंशद् ब्रह्मलोक देवानां स्थिति श्चत्वारिंशत् सागरोपमा भवतीत्यर्थः । 'लतए छप्पन्न' लान्तके पद पश्चाशत् लान्तकदेवानां स्थितिः षट्पञ्चाशत्सागरोपमा भवतीत्यर्थः । 'महामुक्के अट्ठसहि' महाशुक्रे अष्टपष्टिः अष्टपष्टिसागरोपमा स्थितिः, महाशुक्रदेवानां भवतीति भावः 'सहस्सारे वायत्तरि सागरोवमाइ' सहस्रारे द्वासप्ततिसागरोपमाणि द्वाससतिसागरोपसममिता स्थितिर्भवति सहस्रारदेवानामिति । 'एसा उक्कोसा ठिई भाणियन्वा' एषा अनन्तरपूर्वोदीरिता स्थितिरुत्कृष्टा भणितव्या सनत्कुमारादीनामिति 'जहन्नठिई पि चउगुणेज्जा' जघन्यस्थितिमपि चतुर्मिगुणयेत्-चतुर्गुणा कर्तव्या, इत्यर्थः, यदा औधिकेभ्य उत्कृष्टस्थितिकेभ्यो देवेभ्य औधिकादि मन. ज्येषत्पद्यते तदोत्कृष्टस्थितिर्भवति सा चोत्कृष्टसंवेधविवक्षायां चतुभिर्मनुष्यभवैः स्थिति हो जाती है। 'बंभलोए चत्तालीसं' ब्रह्मदेवलोक में ब्रह्मलोकदेवों की चालीस ४० सागरोपम की स्थिति हो जाती है। 'लंतए छप्पन' लान्तक में लान्तकदेवों की ५६ छप्पन सागरोपम की स्थिति हो जाती है। 'महासुबके अहप्ताहि' महाशुक्र में महाशुक देवो की ६८ अडसठ सागरोपम की स्थिति हो जाती है। 'सहस्सारे घावत्तरि सागरोवमाई' :सहस्रार में सहस्रार देवों की ७२ बहत्तर सागरोपम की स्थिति हो जाती है। एसा उक्कोसा ठिई भाणियव्वा' यह जो सनत्कु मार आदि देवों की स्थिति कही गई है वह उनकी उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। 'जहनठिई पि चउगुणेज्जा' तथा जघन्यस्थिति को भी चौगुनी कर लेना चाहिये । जब औधिक उत्कृष्ट स्थिति वाले देवो से आकरके औधिक आदि मनुष्यों में जीव उत्पन्न होता है तब उत्कृष्ट सागरापभनी मायुष्य स्थिति ही छ 'बंभलोए चत्तालीसं. प्रतिभा grati वानी मायुष्य स्थिति ४० याजीस सागरेमनी छे. लंतए छप्पन्न' ards દેવલોકમાં લાન્તક દેવેની આયુષ્ય સ્થિતિ ૫૬ છપન સાગરોપમની છે. 'महासुके अवसर्टि' माशु विमानमा माशु वानी मायुप्य स्थिति ६८ मस8 सागरामनी छ 'सहस्सारे पाश्चरि सागरोवाई' सहसार देवता. કમાં સહસ્ત્રાર દેવની આયુષ્ય રિથતિ ૭૨ બેતર સાગરોપમની કહી છે. - "एमा उकोसा ठिई भाणियव्वा' २ मा सनमार विशेरे हवानी स्थिति सेवामा भावी छ, त तमानी gre स्थिति मतापी छे. 'जहन्नदिइ पि चउ. 'गुणेज्जा' तथा अन्य स्थितिने ५ यार गयी ४शन ४३वीन ઘિક ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા દેમાથી આવીને ઔધિક વિગેરે માજેમાં જીવ ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ હોય છે. અને તે ઉત્કૃષ્ટપણું
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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