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________________ प्रमेयमन्द्रिका टीका श०२४ उ.२१ सू०! मनुष्यागामुत्पत्तिनिरूपणम् ऽपि आगत्योत्पद्यन्ते, हे गौतम ! मनुष्ययोनौ. समुत्पद्यमाना जीवा नारकेभ्यः तियग्भ्यो मनुष्येभ्यो देवेभ्यश्च आगत्य उत्पत्ति लभन्ते.इत्यर्थः । एवं उबवायो जहा पंचिंदियतिरिक्ख नोणियउद्देमए' एवमुपपातो यथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्नीनिको देश के 'जांव तमापुढ पीनेरइरहितो उपवज्जति यावत् 'तमापृथिवीनैरपिकेभ्यो. 'ऽपि 'उ पधन्ते न तु अधःसप्तमीपृथिवीनैरपिकेभ्य उत्पद्यन्ने । यथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकोद्देशके उपपातो वर्णितः तथैव इहापि मनुष्याणामुपातो वक्तव्यः यावत् रत्नपभापृथिवीत आरभ्य तमानाम्नीषष्ठपृथिवीनैरयिकेभ्योऽपि आगल्य मनुष्यत्वेन समुत्पद्यन्ते किन्तु अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकेभ्य आगत्य मनुष्यत्वेन नोस्पद्यन्ते इत्यर्थः । 'रयणप्एम पुढवीनेरइए णं भंते' रत्नप्रभापृथिवीसम्बन्धिनरयिकः खलु भदन्त ! 'जे भविए मणुस्से उबज्जितए' यो भयो मनुष्येषु देवों से भी आकरके उत्पन्न होते हैं । तात्पर्य कहने का यही है कि चारों गतियों से आकरके जीव मनुष्य की पर्याप से उत्पन्न होते हैं। 'एवं उधवाओ जहा पंचिंदियतिरिक्ख जोणिय उद्देसए' जिस प्रकार से पञ्चे न्द्रिय तिर्यग्पोनिक उद्देशक में उपपात का वर्णन हुआ है, उसी प्रकार से यहां मनुष्यों के उपान का वर्णन कर लेना चाहिये। यावत् जीव छठी तमा पृथिवी के नैरयिक पर्याय से आकर के मनुष्यपर्याय में उत्पन्न होता है। पर अधः सातीं तम तमा पृथिवी के नैरयिकपर्याय से आकरके जीव मनुष्यपर्याय रूप से उत्पन्न नहीं होता है। यही वात 'जाव तमा पुढवी नेरइएहिंतो उवधज्नति' इस सूत्रपाठ द्वारा पुष्ट की गई है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'ग्यणपभापुढवीनेरइए णं भंते ! जे भधिए मणुस्सेसु उववज्जिसए' हे છે કે-ચાર ગતિવાળાઓ માંથી આવીને જીવ મનુષ્યની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય छ. एवं उववाओ जहा पचि दियतिरिक्ख जोणिय उद्देसए', रेशते .५ येन्द्रिय તિર્યંચનિક ઉદ્દેશામાં ઉપપાતનું વર્ણન કર્યું છે. એ જ રીતે અહિયાં મનુ ના ઉપપાતનું વર્ણન કરવું જોઈએ યાવતુ જીવ છઠ્ઠી તમાં પૃથ્વીના નૈ. વિકેના પર્યાયથી આવીને મનુષ્ય પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થાય છે પરંતુ અધ: સપ્તમી-તમતમા પૃથ્વીના નરયિક પથથી આવીને જીવ મનુષ્ય પર્યાય રૂપે उत्पन्न यता नथी. मे वात 'जाव तमापुढवीनेरइएहितो ववज्जति' આ સૂત્રપાઠથી સ્પષ્ટ કરેલ છે. ..वे गीतभरपाभी प्रभुन से पूछे छे ४-'रयणप्पभा पुढवी, नेरइएणं भते ! जे, भविए मणुस्सेसु उववजित्तए' 3 लापन नं पृथ्वीना, नैरपि। भ० ४५ " !
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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