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________________ २८८ भगवतीय पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाम्यधिक: पल्योपमत्रयात्मका उत्कर्पतः कायसंवेधः कालापेक्षयेत्यर्थः । 'एवइयं जाव करेजा१ एतावन्तं याव. स्कुर्यात् एतावत्कालं सेवेत तथा-एतावहकालपयन्तं गमनागपने कुर्यादिति प्रथमो गमः१ । 'सो चेत्र जहन्नकालहिएमु उववनो' स एव संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीव एद जघन्यकालस्थितिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु उत्पन्नो भवेत् तदा-'एस चेव वत्तब्धया' एव-प्रथप गक्तिव वक्तव्यता भणितच्या किन्तु प्रथमगमापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदेव दर्शयति-'नवर' इत्यादि । 'नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंधोमुहुत्ता' नवरं कालादेशेन जघन्येन द्वौ अन्तर्मुहतो 'उक्कोसेणं चत्वारि पुषकोडीओ चउहि अनोमुहृत्तहि अमहियाओं' उत्कर्षेण चनस्रः पूर्व हर्त का है और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम का है। 'एवयं जाच करेज्जा' इस प्रकार से वह जीव हतने काल नक उस गति का सेवन हरता है और इतने ही साल तक वह उसमें गमनागमन करता है ऐसा यह प्रथम गम है ॥१॥ ____ 'सोचेव जहन्नकालटिडएस्सु उवचन्नो' यदि वह संज्ञी पञ्चेन्द्रियतियंग्यानिक जीव जघन्य काल को स्थितिवाले पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है, तो उसके सम्बन्ध में भी 'एल चेव वत्तत्रया' यही प्रथमगमोक्त वक्तव्यना वक्तव्य है। किन्तु इस द्वितीय गम की वक्तव्यता में जो प्रथम गम की वक्तव्यता से भिन्नता है वह 'नवरं कालादेलेणं जहन्नेणं दो अनोमुहत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुन्चकोडीओ चाहिं अंतोमुत्तेहिं अमहियाओ' स्त्रकारने इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की है इसके द्वारा उन्होंने यह समझाया है कि यहां छितीय गर्म में पूर्व पृथत्व मधिर व पक्ष्योपमना छ 'एवइयं जाव करेन्जा' मा રીતે તે જીવ આટલા કાળ સુધી તે ગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી ને તેમાં ગમનાગમન કરે છે. એ રીતે આ પહેલે ગમ કહ્યો છે. 'सो चेव जहन्नकालदिइएसु उववन्ने।' न त ससी पयन्द्रियतिय"य નિવાળો જીવ જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા પંચેન્દ્રિય તિર્યમિआमा हत्पन्न थाय छ, त त समयमा पY 'एसा चेव वतन्वया' मा પહેલા ગમમાં કહ્યા પ્રમાણેનું કથન સમજવું. પરંતુ આ બીજા ગમના કથनभा ५४ा म त रे छे, a 'नवरं कालादेसेण जहन्नेणं देर अंतोमुहुत्ता, उकासेणं चत्तारि पुचकोडीओ चरहि अतामुत्तेहिं अमहियाओ'' સૂત્રકારે આ સૂત્રપાઠ દ્વારા એક સમસ્યું છે. કે-અંડિયો આ બીજા ગમમાં.
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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