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________________ २४० भगवतीसूत्रे षड् भवग्रहणानि भवन्तीति । 'पच्छिल्लएसु तिसु गमएम' पश्चिमेपु - त्रिपु - सप्तमांनवमगमकेषु 'जहने दो भवग्गहणाई' जघन्येन द्वे भरग्रहणे भवतः तथा'उफ्को सेणं चत्तारि भवग्गणा' उत्कर्षेण चत्वारि भवग्रहणानि भवन्तीति । 'लंदी 'वसु विगमएस जहा पदमगमए' लब्धिः - परिमाणोस्पादादीनां प्राप्तिः नवरवपि 'गमकेषु यथा प्रथमगमके, येन प्रकारेण प्रथमगम के परिमाणादीनां विविच्य विचारः कृत स्तेनैव प्रकारेण इहापि परिमाणादीनां प्राप्तिर्वक्तव्येति भावः नवस्वपि गमकेपु अन्यत्सर्व प्रथमगमत्रदेव, किन्तु स्थित कालादेशे च वैलक्षण्यं द्वितीयादिगम के पु भवति तदेव दर्शयति- 'णवरं' ठिङविसेसो कालादेसे व वितियगमगे' नवरम्केवलं स्थितिविशेषः कालादेशविशेपथ द्वितीयगमके इथं भवति तथाहि - 'जन बावीस सागरोधमा अनमुत्तममहियाई जघन्येन द्वाविंशतिः सागरोप पीछे के सातवें आठवें और नौवें इन गमों में 'जहन्नेणं दो भवग्गहपाइ' उक्कोसेणं चारि भवरगहणार" जघन्य से दो भवों को ग्रहण करता है और उत्कृष्ट से चार भवों को ग्रहण करना होता है। तथा 'लद्धि णवसु वि गर्मसु जहा पढमगमए' परिमाण, उत्पाद आदिकों की प्राप्ति नौ गमकों में जैसी प्रथम गमक में कही गई है, उसी प्रकार से कहना चाहिये । तात्पर्य यही है कि नौ गमकों में और सब कथन प्रथम गम के जैसा ही है किन्तु स्थिति में और कालादेश में द्वितीयादिगमों में उसकी अपेक्षा भिन्नता है जो इस 'णवरं ठिई विसेसो कालादे से य वितियगमगे 'सूत्रपाठ द्वारा यहां प्रकट की गई है -स्थिति विशेष और कालादेशविशेष द्वितीय गमक में 'जहन्नेणं बावीसं सागरोवमा तमुत्तमहियाइ" इस प्रकार से है कि यहां जघ छे. अने उत्सृष्टया ६ अवाने थहा थाय छे तथा 'पच्छिल्लएसु तिसु गमएस' पाछला सातभा, भाभा, अने नवभा गभेोभां 'जहन्नेणं दो भवग्गहणाइ उक्कोसेण चत्तारि भवगण'ई' धन्यथी मे लवोने ग्रह ४रे छे भने उत्सृष्टथी प्यार लवाने थरे छे तथा 'लद्वो णवसु वि गमवसु' जा पढमगमए' परिभाथ, ઉત્પાત વિગેરેની પ્રાપ્તિ· નવે ગમેમા પહેલા ગમમાં જે પ્રમાણે કહી છે તેજ પ્રમાણેની સમજવી કહેવાનું તાત્પર્ય એજ છે કે-નવે ગમામાં ખાકીનુ તમામ ક્થન પહેલા ગમ પ્રમાણેનું જ છે. પરંતુ સ્થિતિ અને કાલાદેશમા जीन विगेरे गभेोभां पडेला भरतां दुहाई छे ? 'णवरं ठिई बिसेसो कालादेसे य बितियगमगे' मा सूत्रपाठ द्वारा गडियां अगर उस छे स्थिति समधि विशेषषाशु-मने असादेश संबंधी विशेषपशु णीन गभभां 'जहपणे बावीस नागरोवसाई अतोमुहुत्तमन्महियाइ" मा रीते डेव छे. ३
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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