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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२० सू०१ पञ्चन्द्रियति जीवानामुत्पत्त्यादिकम् २२७ पिकप्रथमगमापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदर्शयति-‘णवर' इत्यादि, 'णवर कालादेसेणं -जहन्नेणं तहेव' नवरं कालादेशेन-कालापेक्षया जघन्येन तथैव औधिकप्रथम. गमवदेव, अन्तमुहूताधिकदशवर्ष सहस्राणि 'उक्कोसेणं चत्तारि सागरोबमाई चउहिं अंतोमुहुत्तेहि अमहियाई उत्कर्षेण चत्वारि सागरोपमाणि चतुर्मिरन्तमुंहतैरभ्यधिकानि 'एवइयं कालं जाव करेज्जा' एतावन्तं कालं यावत्कुर्यात् एतावत्कालपर्यन्तं नारकगति पञ्चन्द्रियतियग्गतिं च सेवेत, तथा-एतावत्काल्प. येन्तमुभयगतौ गमनागमनं च कुर्यादिति द्वितीयो गमः २ । 'एवं सेसा वि सत्त गम में पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होने योग्य रत्नप्रभा के नारकों के उत्पाद, परिमाण, संहनन, अवगाहना, संस्थान, लेश्या आदि द्वारों के सम्बन्ध में कथन किया गया है, उसी प्रकार का कथन' 'सो चेव' इत्यादि रूप दितीय गम में उत्पाद, परिमाण, संहनन, अवगाहना, संस्थान आदि का कर लेना चाहिए। केवल औधिक प्रथम गम की अपेक्षा जो भिन्नता है उसे सूत्रकार 'णवरं कालादेसेंणं जहन्नेणं तहेच' इत्यादि सूत्रपाठ द्वारा प्रकट करते हुए कहते हैं कि काल की अपेक्षा से औधिक प्रथम गम के जैसे ही वह जघन्य ले अन्तर्मुहूर्त अधिक १० हजार वर्ष लक और 'उक्को. सेर्ण उत्कृष्ट से चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम तक नारक गति का और पञ्चन्द्रिय तिर्यग्गति का सेवन करता है और इतने ही कालतक वह उसमें गमनागमन करता है ऐसा यह द्वितीय गम है। प्रथम गम में यह काथसंवेध काल की अपेक्षा उत्कृष्ट से चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम का कहा गया है और यहां वह उत्कृष्ट से चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम का कहा गया है। इस प्रकार से प्रभानु थन 'सो चेव' त्या ३५ भी गममा अपात, परिभा, સંહનાન, અવગાહના, સંસ્થાન, વિગેરેનું કથન સમજી લેવું. કેવળ ઔધિક यता मम ४२२ या छे, ते सूत्रसर 'णवर कालादेसेण जहण्णेणं तहेव' मा सत्रमा प्रगट ४२i ४ छ -जनी अपेक्षाथी मौधिर પહેલા ગમ પ્રમાણે જ તે જઘન્યથી અંતર્મુહૂર્તી અધિક ૧૦ દસ હજાર વર્ષ सधी मन 'कोसेणं' थी या२ मतभुडूत मधि: यार सागरापम સુધી નારકગતિનું અને પંચેન્દ્રિયતિર્યંચ ગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી તેમાં ગમનાગમન કરે છે એ પ્રમાણેને આ બીજે ગમ કહ્યો છે પહેલા ગમમાં આ કાયસંવેધ કાળની અપેક્ષાથી ઉત્કૃષ્ટથી ચાર પૂર્વકેટિ અધિક ચાર સાગરયમને કહેલ છે. અને અહિયાં તે ઉત્કૃષ્ટથી ચાર અંતમુંહત અધિક ચાર સાગરોપમને કહેલ છે. આ રીતે ઔધિક પહેલા ગામમાં
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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