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________________ भगवतीसूत्र २२० पुद्गला अनिष्टा अकान्ता मनोज्ञा स्ते एन शरीरसंघातरूपेण परिणमन्तीति शरीरारम्भकपुद्गलानामिण्टन्यानिष्टल्वकान्तत्यादिवैपस्यमयुक्तएव भेदो भवतीत्येतदेव 'णवरं' इत्यादिना प्रकरणेन ध्वनितमिति । 'ओगाहणा दुविहा पन्नत्ता' अवगाहना द्विविधा प्रज्ञप्ता पञ्चन्द्रियतिया उत्पद्यमानानां रत्नप्रभा नारकाणां शरीरावगाहना द्विमकारिका सदतीत्यर्थः । प्रकारद्वयमेव दर्शयति 'तंजहा' इत्यादिना, 'तं जहा तद्यथा 'भवधारणिमा य उनके उच्चियाय अवधारणीया च उत्तरक्रिया च 'तस्थ णं जा सा अवधारगिजा तम-तयो यो रवगाहनयो मध्ये या भवधारणीया अवगाहना 'सा जान्ने गं अंगुळा असंखेज्जमार्ग' सा जघन्येन वहां परिणमले हैं। परन्तु यहां रस्नमा पृथिवी के नैरयिकों का भी जो कि पञ्चेन्द्रियत्तियग्योनिकों में उत्पन्न होने के योग्य है शरीर संहनन रहित होता है परंतु जो पुद्गल अनिष्ट अकान्त, और अमनोज्ञ होते हैं वही पुदल वहां शरीरसंघात रूप से परिणमते हैं इस प्रकार असुरकुमार के कथन की अपेक्षा यहाँ के कथन में शरीरारम्भक पुद्गला की इष्टता, अलिष्टना, कान्तता, अकान्तता आदि की विषमता को लेकर ही भेद होता है यही बात 'णवरं' इत्यादि प्रकरण द्वारा ध्वनित हुई है। 'भोगाहणा दुविहा पन्नत्ता' अवगाहना भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय रूप से दो प्रकार की कही गई है। अर्थात् पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चों में उत्पन्न होने योग्य रत्नप्रभा पृथिवी के नरयिकों की शरीरावगाहना इस प्रकार से दो प्रकार की होती है-यही प्रकारय "अवधारणिज्जा य उत्सरवेषिया थ' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट किया गया है 'तत्थ ण जा सा अवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं इनमें जो अवधारणीय शरीरावगाहना है वह ચિકેમાં પણ કે જે પરસેન્દ્રિય તિર્યંચામાં ઉત્પન્ન થવાને ચોગ્ય છે. તેઓના શરીર પણ સંહનન વિનાના હોય છે. પરંતુ જે પુલે અનિષ્ટ, અકાંત, અને અમાસ હોય છે તેજ પુલે ત્યાં શરીરના સંધાત રૂપે પરિણમે છે. એ રીતે અસુરકુમારના કથન કરતાં આ કથનમાં શરીરના આરમ્ભક પુદ્ગલેના ઈષ્ટપણ, અનિષ્ટપણું, કાન્તપણ, વિગેરેના વિષમ પણાને લઈને જ ભેદે थाय छे. २४ पात 'णवर' या २ बारा ४८ . 'ओगाहणा हुविहा पन्नता' अवधारणीय मने उत्तर ठियना सेहथी अवगाहना मे मारनी ही છે. અર્થાત્ પંચેન્દ્રિય તિયામાં ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નેરયિકેના શરીરની અવગાહના આ રીતે બે પ્રકારની હોય છે. આ બે પ્રકાર 'भवाणिज्जा य उत्तरवेरबिया य' मा सूत्रा द्वारा मताव छ. 'तत्थ णं,जा मा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग' तभी रे सवधारणीय
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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