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________________ प्रमेयमन्द्रिकाठीका श०२४ उ.२० स०१ पञ्चन्द्रियतिन्जीवानामुत्पत्त्यादिकम् २१७ पृथिवी नरयिकः खलु भदन्त ! 'जे मविए पंचिंदियतिरिक्खनोणिएसु उवव ज्जित्तए' यो भव्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिके पूत्पत्तुम् ‘से णं भंते ! केवइयकाल हिइएसु उववज्जेज्जा' स खलु भदन्त ! कियकालस्थितिकेषु पञ्चन्द्रियतिर्यग्यो निकेत्पद्यत इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तहिइएसु' जघन्येनान्तर्मुहूर्तस्थितिकेषु पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिइस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! रयणपभापुढवीनेरहए. हिंतो उवधज्जति' हे गौतम! पंचेन्द्रियतियंग्योनिक जीव रत्नप्रभा प्रथिवी के नैरपिकों से आकरके उत्पन्न होते हैं यावत् 'अहे सत्सम पुढवी नेरइहएहितो उववज्जति यावत् अधः सप्तम पृथिवी से आकर के उत्पन्न होते हैं। यहां पर श्री यावत् शब्द से शर्करामभा से लेकर तमाप्रभा पर्यन्त की नारक पृथिवियों का ग्रहण हुआ हैं। ___अय गौतम् प्रभु से पुनः ऐसा पूछते हैं-'श्यणप्पभापुढवी नेरहए णं भंते । जे अधिए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए उश्वज्जितए' हे भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवीका नैरधिक जो पचेन्द्रिय तिर्यग्योनिको में उत्पन्न होने के योग्य है 'सेणं भंते ! के वहयकालहिहएस्सु उववज्जेज्जा' वह कितने काल की स्थितिवाले पश्चेन्द्रिय लियश्चों में उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'मोयमा! जहन्नेणं अंतोमुत्तहिए' वह जघन्य से एक अन्तमुहर्त की स्थिति वाले एश्चेन्द्रिय तिर्यश्चों में -'गोयमा ! रयणप्पभापुढवीनेरइएहितो उववज्जति' ७ गौतम! ५'यन्द्रिय તિર્યંચનિવાઈ જીવ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય छ. यावत् 'अहे खत्तम पुढवीनेरइएहि तो उववज्जंति' यावत् तेसी माससमी પૃથ્વીથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. અહિયાં પણ યાવત્ શબ્દથી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમામભા સુધીની નારક પૃથ્વી ગ્રહણ કરાઈ છે. वे गीतमस्वामी प्रसने से पूरे छ 'रयणप्पभापुढवीनेरहए णं भंते। जे भविए पचिदियतिरिक्खजोणिएम् उववज्जित्तए' . मगवन રતનપ્રભા પૃથ્વીના નૈરચિકે કે જેઓ પંચેન્દ્રિય તિય માં Gurन यवान योग्य छ, 'से णं भवे! देवइयकालद्विइएसु उववज्जेजा' તે કેટલા કાળની સ્થિતિવાળા પદ્રિય તિય ચામાં ઉત્પન્ન થાય छ १ मा प्रश्न उत्तर प्रभु ४९ छ है-'गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहुत्तद्विइ. પણું તે જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તની સ્થિતિ વાળા પંચેન્દ્રિય તિર્યમાં ૨૦ ૨૮
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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