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________________ १२४ Prernada वर्षायुष्कसंज्ञिमनुष्येभ्य आगत्योत्पद्यन्ते तथा 'अपज्जतसंखेज्जवासाउयसन्नि मणुस्सेर्हितो वि उववज्जेति' अपर्याप्त संख्येगवर्पायुष्कर्स ज्ञिमनुष्येभ्योऽपि भागत्य समुत्पद्यन्ते पर्याप्त केभ्योऽपर्यप्तकेभ्य उभयेभ्योऽपि आगतानां पृथिवी कायिकेषु समुत्पतिर्भवतीति भावः । 'सन्निमणुस्से णं भवे' संज्ञिमनुष्यः खल्लु भदन्त ! 'जे भवि पुढवीकाइएस उववज्जित्तए' यो भव्यः पृथिवीकायिकेपूपत्तुम् ' से णं भंते' स खलु भदन्त । 'केवइयकालट्ठिएस उदवज्जेज्जा' कियकाल स्थितिकेषु पृथिवीकायिकेपूपयेत हे भदन्त । यः संक्षिमनुष्यः पृथिवीकायिके पत्तियोग्यो विद्यते स कियत्कालस्थितिक पृथिवी कायिके पूत्पयेते ति मेनः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जहन्नेणं अंतो दुद्विस' जघन्येनान्तर्मुहूर्तस्थितिकेषु 'उक्कोसेणं बावीसवास सहसडिएस सन्नि मणुसेहितो वि उवचज्जंति' पर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क संज्ञीमनु से भी आकर के वह वहां उत्पन्न होता है और अपर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से भी आकरके वह वहां उत्पन्न होता है :: अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'सन्निमणुस्से णं भंते जे भविए पुढवी-काइएस उववज्जिन्त्तए' हे भदन्त । संज्ञी मनुष्य जो पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होने के योग्य है ' से णं भंते केवइयकोलडिएस उववज्जेजा' वह कितने काल की स्थिति वाले पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर ' में प्रभु कहते है - 'गोधमा !' हे गौनम ! 'जहन्नेणं अंते गुहुत्तट्ठिएस उवजति वह जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त की स्थितिवाले पृथिवीकायिकों में 'उत्पन्न होता है और 'उफोसेणं वावीसवासस हम्सट्टिए सु०' उत्कृष्ट से वह सान्निमस्सेहितो उववज्जंति अपज्जस खेज्जवात्रा साउन लन्निमणुस्सेहि तो वि उववज्जंति' पर्याप्त संख्यात वर्षांनी आयुष्यवाणा संज्ञी मनुष्येाभांथी આવીને પણ તે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને અપર્યાપ્ત સખ્યાત વષઁની માયુષ્યવાળા સન્ની મનુષ્ચામાંથી પણ આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. हुवे गीतभस्वाभी प्रलुने शोवु पूछे थे - 'सन्नि मणुग्णं भंते ! जे भविए. पुढवीकाइए उववज्जितए डे भगवन् ने संज्ञी मनुष्य पृथ्वी अयिभां उत्पन्न थवाने योग्य छे, 'से णं भंते! केवइयकालट्ठिएसु उववज्जति' ते टला કાળની સ્થિતિવાળા પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ४द्धे छे –‘गोयमा !' डे गौतम! 'जहणणेणं अंतोमुहुत्तट्टिइमसु उववज्जंति' ते જઘન્યથી એક અંતસુહૃતની સ્થિતિવાળા પૃથ્વીાયિકામાં ઉપન્ન થાય છે. અને “नक्को सेणं बावीस्रवास्रसहस्त्र ट्ठिएसु०' उत्सृष्टथी ते २२ मावीस डेन्जर वर्णनी स्थि-ति 7
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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