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________________ ५६५ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ. २ सू०१ अंसुरकुमारदेवस्योत्पादादिकम् योगस्त्रिविधोऽपि - त्रिप्रकारकोऽपि मनोयोगवचोयोगकाययोगा भवन्तीति । (९) । उपयोगद्वारे - ' उब भोगो दुविहोत्रि' उपयोगो द्विविधोऽपि सकारोपयोगो नाकारोपयोग भवतीति (१०) । संज्ञाद्वारे - ' चचारि सन्नाओ' चतस्रः संज्ञा, आहारमय मैथुनपरिग्रहरूपाः (११) । कषायद्वारे - ' चचारि कसाया' चत्वारो कषायाः क्रोधमानमाया लोभरूपा: (१२) । इन्द्रियद्वारे - 'पंचिंदिया' पञ्चेन्द्रियाणि - -श्रोत्रचक्षुत्राणरसस्पर्शनानि भवन्तीति (१३) । समुद्वातद्वारे - 'विन्नि समुग्धाया आदिल्ला' त्रयः वेदना कपायमारणान्तिका आदिमाः समुद्घाता भवन्तीति 'समोहया विमति' समहता अपि म्रियन्ते (१४) । वेदनाद्वारे - 'वेषणादुविधा वि' वाले होते हैं- मनोयोग वाले, वचनयोग वाले, और काययोग वाले, होते हैं उपयोगद्वार में - 'उवओगो दुविहो वि' साकार उपयोग और अनाकार उपयोग ये दोनों प्रकार के उपयोग इनके होते हैं। संज्ञाद्वार में 'वारि सन्नाओ' इनके आहार भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाएँ होती हैं । कषाय द्वार में - ' चत्तारि कसाया 'चार कषाय - क्रोध, मान, माया और लोभ होते हैं । इन्द्रियद्वार में 'पंचिदिया' ये श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसन और स्पर्शन इन पाँचों इन्द्रियों वाले होते हैं । समुद्घातद्वार में - ' तिन्नि समुग्धाया आदिल्ला' आदि के वेदना, कषाय और मारणान्तिक ये तीन समुद्घात इनके होते हैं। 'समोहया वि मरंति' ये समुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात विनाकिये भी मरते हैं । वेदनाद्वार में - 'वेणा दुविहा वि' इनके शातारूप और अज्ञातारूप दोनों प्रकार की वेदना होती है, वेदद्वार में 'वैद्यो दुविहो वि' इनके स्त्री वेद और ચૈાગવાળા ડાય છે મનેા ચેાગવાળા, વચન ચેાગવાળા, અને કાયયેાગવાળા डोय छे. उपयोगद्वारभां 'खओगो दुविहो वि' सार उपयोग भने अताકાર ઉપચેગ આ ખન્ને પ્રકારના ઉપચાણ તેઓને ડાય છે. 'સંજ્ઞીદ્વારમાં 'चत्तारि सन्ना ओ' तेखाने आहार, लय, मैथुन भने परिग्रह मे थार संज्ञाओ। हाय छे ''पायद्वारा ' 'चत्तारि कसाया' यार उषाय मेरो है-ध, भान, भ.या, अने बोल में यर उषायो होय छे. 'न्द्रिय द्वारभां 'पंचि दया' तेथेो श्रोत्र- छान, यक्षु-नेत्र, प्राणु-नासित, रसना, कल भने स्पर्श मे पये इंद्रियो वाजा होय छे, समुद्दधाता द्वारभां 'तिन्नि समुग्वाचा आदिल्ला' તેઓને પહેલા એટલે કે-વેદના, ક્યાય, અને મારણાન્તિક એ ત્રણ સમુદ્ धान होय हे 'खमेाहया वि मरंति' तेथे। सभुद्धात उरीने भरे छे. दुबिहा वि. ' વેદકારમાં · भने समुहद्धात अर्ध्या विना य भरे छे, 'वेना द्वारा' 'वेणा તેઓને શાતારૂપ અને અશાતારૂપ અને પ્રકારની વેદના હાય છે.
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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