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________________ , प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उं. १ सू०७ मनुष्येभ्या नारकाणामुत्पत्यादिकम् ५०७ मदर्शिताः, यतोऽजघन्यरिथतिकानाम् आहारसमुद्वातस्यापि संभवो भवति | ३ | 'ठिई अणुबंधो य जहन्नेग मासपुहृत्तं उकोसेग वि मासपुहृत्तं ' स्थितिरनुबन्धच जघन्येन मासपृथक्स्त्रम् उत्कर्षेणापि मासपृथक्त्वमेव पूर्वम् स्थितिर्जघन्येन मासक्त्वरूपा कथिता उत्कर्षेण पूर्वकोटिः कथिता इह तु जघन्योत्कृष्टाभ्यामपि मासपृथक्त्वरूपैवेति भवत्येव पार्थक्यम् ४ तथा अनुबन्धोऽपि पूर्वं जघन्यतोमासपृथक्त्वम् उत्कृष्टतः पूर्वकोटि, इहतु जघन्योत्कृष्टाभ्यां मासपृथक्त्वरूपमेवेति भवत्येव उमयत्रापि वैलक्षण्यम् ५ । अवगाहना १, ज्ञानाज्ञाने २ समुद्घात र स्थि समुद्घात कहे गये हैं। क्योंकि अजघन्य स्थिति वालोंके आहारसमुद्यात का भी सद्भाव हो सकता है, पर जघन्य स्थितिवालों के इसका संभव नहीं हो सकता है, इसीलिये यहां आदि के पांच ही समुद्घात प्रगट किये गये हैं |९| 'ठिई अणुबंधो य जहन्नेण मासपुहुत्तं उक्को सेण वि मामपुहुप्त' यहां स्थिति और अनुबन्ध जघन्य से मासपृथक्त्व का है, और उत्कृष्ट से भी मापृथक्त्व का है। प्रथम गम में स्थिति जघन्य से मासपृथक्त्व कही गयी है, और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि रूप कही गयी है, तथा यहां पर जघन्य और उत्कृष्ट से मासपृथक्त्व रूप ही कही गयी है |४| इसी -प्रकार अनुबन्ध भी पूर्वगम में मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि रूप कहा गया है, और यहां उत्कृष्ट और जघन्य से दोनों रूप से वह मासपृथक्त्व रूप होता है इस प्रकार अवगाहना १ ज्ञानाज्ञान २ પહેલા ગમમાં ૬૭ સમુદ્લાતા કહેલા છે. કેમકે અજઘન્ય સ્થિતિ વાળાને આહાર સમુદ્ધાત પણ હેાઈ શકે છે પણ જઘન્ય સ્થિતિ વાળાને તેના સભવ હાઈ શકતા નથી, તેથી જ અહિયાં પહેલાના પાંચ જ સમુદ્લાતા કહેલા છે. 'ठिई अनुबंधो यजन्तेणं मासपुहुतं उक्कोसेणं वि मासपुहृत्तं' मडियां स्थिति भने અનુબંધ જઘન્યથી માસપૃથક્ ́ છે, અને ઉ કૃષ્ણથી પણ માસપૃથ છે. પહેલા ગમમાં જઘન્ય સ્થિતિ માસ પૃથહ્ત્વની કહી છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂકોટિ રૂપ કહી છે. તથા અહિયાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી માસપૃથ જ કહી છે. એજ રીતે અનુખ ધ પણ પહેલા ગમમાં માસપૃથક્ક્ત્વ અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂવ કાટિ રૂપ કહેલ છે. અને અહિયાં ઉત્કૃષ્ટ અને જધન્ય એ બન્ને પ્રકારે તે માસ પૃથ′′ હાય છે. આ રીતે અવગાહના ૧ જ્ઞાન અજ્ઞાન ૨ સમુદ્લાત ૩
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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