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________________ ५८२. भगवती का संक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको जघन्यस्थितिकसरामनारकपृथिवीसंवन्धिनारकतया उत्पद्यते इत्यारस्य अनविपये अनन्तरोक्तचतुर्थो गमः कालादेशपर्यन्तः संपूर्णोऽपि वक्ता इति पञ्चमो गमः।५।। 'यो चेव उक्कोसकालटिइएसु उववन्नो' स एव जघन्यायुप्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियनियंग्यानिकः उत्कृष्टकालस्थितिकसप्तमनरकपृथिवीसंवन्धिनारकतयोत्पत्त्यमानः सक्रियकालस्थितिकनायिके पृत्पद्येत 'सच्चेव लद्धी जाच अणुवंधोत्ति' सैघ लन्धर्शवदनुबन्ध इति, अत्रापि अनुवन्धपर्यन्तं सर्वमपि पूर्ववदेव अत्येतव्यम् । 'भवादेसेणं जहन्तेणं तिनि भवग्गहणाई' भवादेशेन जघन्येन त्रीणि भनग्रहणानि 'उक्कोसेणं पंचभदग्गहणाई' उत्कर्षेण पञ्चमवग्रहणानि, 'कालादेसेणं जहन्नेणं' कालादेशेन-कालापेक्षया जघन्येन, तेत्तीसं सागरोधमा दोहि अंतोमुहुत्तेहि अमहियाई त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि द्वाभ्यामन्तर्मुहूर्ताभाणियन्यो' वही चतुर्थ गल सम्पूर्ण रूप से फालादेश तक कह लेना चाहिये। ऐसा यह पांचवां गन हैं ।। _ 'सो चेव कोसकालटिइएस्सु उववन्नो' यदि वही जघन्य आयुवाला संज्ञी पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तम नरक पृथिवी सम्बन्धी नारक की पर्याय से उत्पन्न होने के योग्य है तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'सच्चेव लद्धी जाव अणुबंधोत्ति' हे गौतम । यहां पर अनुबन्ध तक समस्त कथन पूर्वोक्त जैसा ही कहलेना चाहिये, 'भवादेसेणं जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणा' भव की अपेक्षा यहाँ जघन्य से तीन भवों को 'ग्रहण करने तक और उत्कृष्ट ले पांच भवों को ग्रहण करने तक तथा काल की अपेक्षा जघन्य से दो अन्तर्मुहूत्तों ले अधिक ३३ सागरोपम पायमा म छे. 'सो चेव उक्कोसकालदिइएसु उववन्नो' नेते धन्य मायुવાળે સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નિવાળો જીવ ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિ વાળા સાતમી નરક પૃથ્વીના નારકની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય હોય તો તે કેટલા કાળની સ્થિતિવાળા નૈરયિમાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ४ छ है-'सच्चेव लद्धी जाव अणुबंधोति' हे गीतम! माडियां अनुभधना ४थन सुधार्नु सघणु ४थन ५७i sal प्रभारी ही वे'. 'भवादसे णं जहन्नेणं तिन्नि भवगहणाई' सपना अपेक्षाथी महिया न्यथी त्रए ‘ભાને ગ્રહણ કરતાં સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી પાંચ ભલેને ગ્રહણ કરતા સુધી તથા કાળની અપેક્ષાએ જઘન્યથી બે અંતર્મુહૂર્તથી અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગ
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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