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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सू०६ पर्याप्तकसंक्षिपतिरश्चां ना. उ. नि० ४८१ मन्तर्मुहूतीभ्यामभ्यधिकानि 'उकोसेणं छावटि सागरोत्रमाई उत्कर्षेण पट्षष्टिः सागरोपमाणि 'चाहिं अंतोप्नुहुत्तेहिं अमहियाई' चतुर्भिरतर्मुहूर्तरभ्यधिकानि, 'एवइयं जाव करेजा' एतावन्तं कालं तिथंग्गति नारकगतिं च सेवेत तथा एतावन्तमेव कालं तियगतौ नारकगतौ च गमनागमने कुर्यात् स पर्याप्तसंक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यज्योनिक इति चतुर्थों गमः ॥४॥ सो चेव जहाकालदिइएमु उववन्नो' स एव जघन्यकालस्थितिकेषु उत्पन्नः पर्याप्तसंक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको जीका, जघन्यस्थितिकसप्तमनरकपृथिवीसंबन्धिनारकेपु नारकतया उत्पधते, 'एवं सो चेव चउत्थो गमभो निरवसेसो भाणियन्नो जात्र कालादेसोत्ति५' एवमत्र स एव चतुर्थों अमको निरक्शेष:-संपूर्णोऽपि वक्तव्यो यार कालादेश इति जघन्यस्थिति अन्तर्नुहुत अधिक २२ सागरोपस लक्ष और उत्कृष्ट से चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ६६ सागरोपम तक वह उस तिर्यग्गति और नरक गति का लेखन करता है और इतन्दे काल तक ही वह उसमें नमनागमन करता है जघन्य ले जो यहां तीन मष ग्रहण करना कहा गया है वाह मत्स्य के दो भवों को और नारक के एक भव को लेकर कहा गया है, तथा उत्कृष्ट से जो सात भव ग्रहण करना कहा गया है-वह मत्स्य के चार भवों को और नारक के तीन भवों को लेकर कहा गया है। ऐसा यह चतुर्थ गम है।४' सो चेद जहन्नकालहिहएसु उपचन्नों' यदि वह जघन्य काल की स्थिति बाला संज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीव जघन्य काल की स्थिति वाले सप्तम पृथिवी सम्बन्धी नारकों में नारक की पर्याय से उत्पन्न होता है तो यहां पर भी 'लो चेव चउत्यो गमओ निरवसेसो બાવીસ સાગરોપમ સુધી તથા ઉત્કૃષ્ટથી ચાર અંતમુહ અધિક ૬૬ છાસઠ સાગરેપમ સુધી તે એ તિર્યંચગતિ અને નરક ગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલાજ કાળ સુધી જ તે તેમાં ગમનાગમન કરે છે, જઘન્યથી અહિયાં જે ત્રણે ભવ ગ્રહણ કરવાનું કહ્યું છે, તે માછલાના બે ભને અને નારકના એક ભવને ઉદ્દેશીને કહેલ છે. તથા ઉત્કૃષથી જે સાત ભવ ગ્રહણ કરવાનું કહેલ છે, તે માછલાના ચાર ભવ અને નારકના ત્રણ ભવને ઉદ્દેશીને કહેલ छ. म भावना व्याथा गम ४ छ. 'सो चेव जहन्नकालदिइरसु उववन्नो' જે તે જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળે સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિય ચ ચનિવળે જીવ જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા સાતમી પૃથ્વીના નાકમાં નારકની પર્યાયથી Gua गाय छ त मलियां ५५ 'सो चेव चउत्थो गमओ निरवखेसों भाणियवो तयाथी गभ सपू शत माहेश सुधी 61 स्व. मा शतमा भ० ६१
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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