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________________ ४७२ भगवतीस्त्रे ज्जा' उत्कर्षण त्रयसिंशत्सागरोपमस्थितिकेषु नैरपिकेषु उत्पधेत, जघन्योत्कृष्टा. भ्यां द्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकनैरयि केषु अधासप्तम्याः संबन्धिषुपर्याप्तसंख्यातवर्षायुष्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामुत्पत्ति भवतीति भावः । 'ते णं भंते ! जीवा०' इति-'ते णं भंते ! जीवा एगसमरण केवइया उपवज्जति' ते-पर्याप्तसंख्यातवर्षायुष्कसंज्ञिपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका जीवा एकसमयेन कियन्तो. ऽध सप्तम्याः पृथिव्याः · नरकाचासे समुत्पद्यन्ते इति प्रश्ना, जघन्येन एको वा द्वौ वा यो वा समुत्पद्य उत्कृष्टतः संख्याता वा असंख्याता वा समुत्पधन्ते इत्युत्तरम् । _अथाऽतिदेशमाह-एवं' इत्यादि, ‘एवं जहेव रयणप्पभाए णव गमगा लद्धी. वि सच्चेव एवं यथैव रत्नप्रभायां नवगमकाः लब्धिरपि सैव रत्नपभाप्रकरणवदेव हापि नवगमका वक्तव्या स्तथा प्राप्तिरपि नारकाणां यथा भाति सा प्राप्तिरपि तथैव वक्तव्या इति । रत्नपभापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदिह दर्शयति-'नवरं' इत्यादि 'नवरं उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट से ३३ सागरोपम की स्थिति दाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'ते णं भंते! जीवा' हे भदन्त ! वे पर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव एक समय में वहां सातवीं भूमि में कितने उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम | वे जघन्य से वहां एक अथवा दो अथवा तीन तक उत्पन्न होते हैं और उत्कृष्ट से संख्यात अथवा असंख्यात तक उत्पन्न होते हैं। 'एवं जहेव रयणप्पभाए, णव गमगा लद्धी वि सच्चेव' इस प्रकार रत्नप्रभा प्रकरण के जैसे यहां पर भी नौ गमक कह लेना चाहिये, तथा प्राप्ति भी नारकों के जैसी होती है वह प्राप्ति भी उसी प्रकार से कह लेनी चाहिये, रत्नप्रभा की व गौतभावामी प्रभुने मे ५छे छे ?- णं भंते जीवा' जसवन् પર્યાપ્ત સંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નિમાં ઉત્પન્ન થયેલા એવા તે જ એક સમયમાં તે સાતમી નરક ભૂમિમાં કેટલા ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે-હે ગૌતમ ! જઘન્યથી તેઓ એક અથવા બે અથવા ત્રણ સુધી ઉત્પન્ન થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી સંખ્યાત અને असभ्यात सुधी पन्न थय छे. 'एवं जहेव रयणप्पभाए णव गमगा लद्धी वि सच्चव' या शत-२नमा पृथ्वीना मडियां ५५ ८ न१ गम ही લેવા જોઈએ. તથા પ્રાપ્તિ પણ નારકેની જેમ હોય છે. તે પ્રાપ્તિ પણ એજ પ્રમાણે અહિયાં કહેવી જોઈએ. રત્નપ્રભાની અપેક્ષાએ અહિંના કથનમાં જે
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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