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________________ - प्रमैयन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सू०५ संक्षिपञ्चेन्द्रियतिरश्यां नारकेपूनि० ४२७ इत्यादि, 'नवरं पंच समुग्घाया आदिल्ला' नवरं पञ्चसमुद्घाता आदिमाः असंज्ञिप्रकरणे त्रयएव वेदना कषायमारणान्तिकाः समुद्घाताः कथिताः, संज्ञिनां तु रत्न मभागतानामाचा वेदनाकषायमारणान्तिरक्रियतैजसाः पञ्चसमुदघाता भवन्ति चरमयोयोराहारककेवलिसमुद्घातयो मनुष्याणामेव संममादिति 'वेदो तिविहीं वि' वेदनिविधोऽपि-स्त्रीवेदः पुरुषवेद: नपुंसकवेद इति । 'अवसेसं तंचेव' अवशेष तदेव एतव्यतिरिक्तम् असंज्ञिप्रकरणे कथितमेव सर्वमपि इहापि अवगन्तव्यम् । 'जाव' यावत्-'से णं भंते ! पज्जतसंखेन्जवासाउयसभिपंचिंदियतिरिखजोगिए' सखल भदन्त ! पर्याप्तसंख्येयवर्षायुष्कसंक्षिपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका, तदनन्तरं मृत्वा 'रयणप्पभापुढवीनेरइए' रत्नप्रभापृथिवी सम्बन्धिनारको जातः 'पुणरवि' पुनरपि की अपेक्षा जो विलक्षणता है उसे 'नवरं' इत्यादि पाठ द्वारा प्रकट करते हैं-'नवरं पंच समुग्धाया आदिल्ला' असंज्ञि प्रकरण में आदि के तीन ही समुद्घात-वेदना, कषाय और मारणान्तिक-कहे गये हैं और यहां संज्ञी के प्रकरण में रत्नप्रभा में जानेवाले संज्ञिपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्यो. नि जीवों के वेदना, कषाय भारणान्तिक, वैक्रिय और तैजल ये पांच समुद्घात कहे गये हैं। अन्त के आहारक और केवलि ये दो समुद्घात मनुष्यों के ही होते हैं। 'वेदो तिविहो वि' वेद स्त्री पुरुषनपुंसक ये तीनों होते हैं 'अवसेसं तं चेव' इससे व्यतिरिक्त और सब कथन असंज्ञि प्रकरणोक्त जैसा ही जानना चाहिये, यावत्-‘से णं भंते। पज्जत्तसंखे. जवासाउय सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए' यहां गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त । जब वह पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क संज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनिक जीव मरकर 'रयणप्पमा पुढवीनेरहए' रत्नप्रभा પ્રકરણમાં વેદના, કષાય અને મારણાન્તિક એ ત્રણ જ સમુદુઘાત કહ્યા છે. અને અહીયાં આ સંસી પ્રકરણમાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં રહેનારા જીવોને એટલે કે સંસી ને વેદના, કષાય, મારણાન્તિક, વૈકિય, અને તૈજસ એ પાંચ સમૃદુ ઘાત લેવાનું કહેલ છે, છેલ્લા આહારક અને કેવલી એ બે समुद्धात मनुष्यामः ॥ य छ, 'वेदो तिविहो वि' वह स्त्री पु३५ नएस से ये डाय छ. 'अवसेसं त चेव' 1 शिवायर्नु तमाम ४थन मसभी प्रभा र प्रभाये समा. यात 'से णं भते ! पन्जत्तः संखेन्जवासाउय सन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए' माडियां गीतमस्वामी असुन એવું પૂછયું છે કે-હે ભગવન તે પર્યાપ્ત સંખ્યાત વર્ષીયુષ્ક સંજ્ઞી પંચેन्य तिय य योनिवाणो 4 भरीत न्यारे 'रयणप्रभा पुढवी नेरइए' ने असा पृथ्वीना ना२४ २४ लय छ, भने 'पुणरवि' था -२नमा पृथवी.
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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